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________________ 12 अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 का उपदेश करते हैं जबकि नरक आदि नहीं है, यह संघ का अवर्णवाद है। धर्म सुखदायक नही है, क्योंकि धार्मिक दुःखी देखे जाते हैं, यह धर्म का अवर्णवाद है। मूर्ति में पूज्य पुरुष नहीं रहते हैं या देव सुरादि का सेवन करते हैं, यह देव का अवर्णवाद है। 14 उक्त सभी प्रकार का अवर्णवाद् मिथ्यात्व के कारण उत्पन्न होता है। यद्यपि मोहनीय कर्म का जीव के साथ अनादिकाल से सम्बन्ध है, अतः उक्त आस्रव कारणों को गृहीत मिथ्यात्व जन्य दर्शनमोहनीय के आस्रव के कारण समझना चाहिए । जब से जीव है तभी से उसके साथ कर्मसम्बद्ध है। मुर्गी एवं अण्डा के समान किसी को पूर्ववर्ती कहना संभव नहीं है। तथापि जीव अनादि अनन्त है, जबकि कर्म अनादि सान्त है। किन्तु कोई भी कृत विशिष्ट कर्म अनादि नहीं है। एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और अज्ञान रूप मिथ्यात्व दो प्रकार का है- अगृहीत और गृहीत । मिथ्यात्व कर्म के उदय से अन्योपदेश के बिना ही अनादिकाल से सम्बद्ध मिथ्यात्व को अगृहीत मिथ्यात्व कहते हैं तथा जो दूसरों के उपदेश से ग्रहण किया जाता है, उसे गृहीत मिथ्यात्व कहते हैं। जीव ने अनेकों बार गृहीत मिथ्यात्व को छोड़ा है, परन्तु वह उसे फिर ग्रहण कर लेता है। आत्मोन्नति के लिए अगृहीत मिथ्यात्व को त्यागकर सम्यक्त्व की उपलब्धि होना अनिवार्य है । तत्त्वार्थसूत्र में बन्ध के पांच कारण बताये गये हैं- मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । दर्शनमोहनीय के बन्ध में ये सभी कारण है। क्योंकि बन्ध को इन पांच कारणों में सर्वप्रथम मिथ्यादर्शन का अभाव होता है, तब कहीं अविरति आदि का अभाव होता है मिथ्यात्व का अभाव किये बिना जो अविरति आदि का अभाव करने के लिए व्रतादि धारण करते हैं, उनका दर्शनमोहनीय का बन्ध होता रहता है। यद्यपि सभी तरह के प्रकृति एवं प्रदेश बन्ध योग से होते हैं, तथापि स्थिति एवं अनुभाग बन्ध कषाय से होते हैं। " अतः योग एवं कषाय की तीव्रता, मन्दता से बन्ध में भी अन्तर पड़ जाता है। मोहनीय कर्म के अट्ठाईस भेदों में दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैंसम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यड्. मिथ्यात्व । जिसके उदय में जीव को तात्त्विक रुचि तो उत्पन्न हो जाती है, किन्तु उसमें चल, मलिन और अगाढ दोष बने रहते हैं, उसे सम्यक्त्व कहते हैं। जिसके उदय में जीव सर्वज्ञभाषित तत्त्वार्थश्रद्धान में निरुत्साही होता है, हिताहितविचारशून्य होता है, उसे
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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