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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
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५. प्रतिरूपकव्यवहार- उत्तम या अधिक मूल्य की वस्तु में हीन या कम मूल्य की वस्तु मिलाकर बेचना, ताकि अधिक मुनाफा लिया जा सके। प्रतिरूपकव्यवहार नामक अतिचार है। । यद्यपि उक्त पाँच अतिचार कभी-कभी ऐसे प्रतीत होते हैं, जैसे ये अतिचार न होकर अनाचार या साक्षात् चोरी ही हों, तथापि इनसे व्रत का एकदेश भंग और एकदेश अभंग अर्थात् व्रत की भंगाभंग स्थिति होने के कारण इन्हें अतिचार माना गया है। इनका दण्डविधान प्राचीनकाल में भी उतना नहीं था, जितना चोर द्वारा चोरी किये जाने का था, किन्तु इन दोषों का भी दण्ड था जो कभी-कभी सुधार के अवसर के रूप में चेतावनी या कर को बढ़ाकर ग्रहण करने के रूप में दृष्टिगोचर होता है। आज भी भारतीय दण्डसंहिता की धाराओं में चोरी की प्रकृति और चोरी के दोष की प्रकृति के आधार पर दण्ड में तारतम्य की स्थिति देखी जाती है।
सूर्योदय की भावना वाले जैनाचार्यों ने जहाँ आचार के रूप में समाज को सुखी एवं समृद्धिशाली बनाने की कोशिश की है, वहाँ नियमों का उल्लंघन करने वालों के लिए प्रायश्चित एवं दण्डविधान का भी यथोचित निर्देश किया है। भारतीय दण्ड संहिता (Indian Penal Code) की धारा 121-140, 172-190 को विरूद्धराज्यातिक्रम में समाविष्ट कर सकते हैं, धारा 230-263 को प्रतिरूपकव्यवहार एवं विरुद्धराज्यातिक्रम तथा धारा 264-267 को हीनाधिकमानोन्मान में सम्मिलित कर सकते हैं। धारा 121 से 140 तक राज्यविरुद्ध एवं सेवा सम्बन्धी अपराधों के विषय में है। धारा 172-190 राज्यसेवकों द्वारा की गई राजकीय आदेशों की अवहेलना के विषय में है तथा धारा 264-267 माप-तौल सम्बन्धी अपराधविषयक है। राजकीय सिक्कों तथा सरकारी स्टाम्प की चोरी तथा जाली सिक्कों के बनाने एवं स्टाम्प पेपर के छापने सम्बन्धी धारा 230-263 को हम प्रतिरूपकव्यवहार एवं विरुद्धराज्यातिक्रम में समाविष्ट कर सकते हैं। सम्पत्ति सम्बन्धी अपराध की धाराओं 378-462 में से कतिपय को अचौर्याणुव्रत के अतिचारां में देखा जा सकता है। ___ अतः चोरी के अपराध से बचने एवं उसके दोषों के भागी बनने से बचने के लिए अचौर्याणुव्रत का निरतिचार पालन आवश्यक है। जैनाचार में