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________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 अर्थात जो प्रमाद के योग से दसरे द्वारा नही दिये गये परिग्रह को ग्रहण करता है, उसे चोरी समझना चाहिए और वह चोरी प्राणघात का कारण होने से हिंसा ही है। धन पुरुषों के बाहिरी प्राण माने जाते हैं, अतः जो उसके धनों का अपहरण करता है, वह उसके प्राणों का ही हरण करता है। श्रावकाचारों के अनुशीलन से जो फलितार्थ निकलता है, उसे इस प्रकार देखा जा सकता है(1) पानी, घास आदि सर्वयोग्य वस्तुओं का ग्रहण चोरी नही है। (2) उत्तराधिकार में प्राप्त धन कुटुम्बी को मर जाने पर ग्रहण करना चोरी __नहीं है। किन्तु जीवित अवस्था में बिना पूछे ग्रहण करना चोरी है। (3) रिक्थ (मृत स्वामी का धन), निधि और निधान से प्राप्त धन राजा का होता है, उसका ग्रहण करना चोरी है। (4) किसी खरीदे गये मकान में, मार्ग में, पानी में, व्रत में या पर्वत में मिला धन का ग्रहण करना चोरी है। इस धन पर राजा का अधिकार होता है। (5) वस्तु मेरी है या नही है- ऐसी संशयास्पद वस्तु का ग्रहण करना भी चोरी की श्रेणी में ही आता है। विभिन्न आचार्यों ने अपने आचारशास्त्रविषयक ग्रन्थों में अचौर्याणुव्रत के फल एवं चोरी पाप के फल का क्वचित् संक्षिप्त एवं क्वचित् विस्तृत वर्णन किया है। सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद कहते हैं कि चोर का सब लोग तिरस्कार करते हैं। वह इस लोक में ताडन, मारण, बन्धन, छेदन, भेदन एवं सर्वस्वहरण आदि दुःखों को प्राप्त करता है तथा परलोक में अशुभ एवं गर्हित गति की प्राप्त करता है।” वसुनन्दिश्रावकाचार में चोरी के फल का वर्णन करते हुए कहा गया है कि चोर इस लोक और परलोक में यातनाओं को पाता है। वह कभी भी सुख नही पाता है। वह भय से थर-थर कांपता रहता है, इधर-उधर भागता फिरता है, दिख जाने के डर से लुकता-छिपता फिरता है। वह अपने माता-पिता, गुरु, मित्र, स्वामी यहाँ तक कि तपस्वियों तक को कुछ नहीं गिनता है। चोर को आरक्षक रस्सियों से बांधकर पकड़ लेते हैं। वे बड़ा अपराध होने पर शूली तक पर चढ़ा देते हैं। पर लोक में भी दुर्गति को पाता है। सावयधम्मदोहा में तो कहा गया है कि चोरी चोर
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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