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________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 को समझना आवश्यक है। अचौर्य का उल्लेख अस्तेय नाम से भी किया गया है; क्योंकि चौर्य एवं स्तेय पर्यायवाची हैं। अस्तेय या अचौर्य व्रत के दो भेद हैं- महाव्रत और अणुव्रत। महाव्रत मुनियों के लिए होता है। वह कभी भी वस्तु को ग्रहण करता ही नहीं है, अतः उसे पराई वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने के भाव को त्यागने की बात कही गई है। श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य ने नियमसार में स्पष्टतया कहा है 'गामे वा णयरे वा रणे वा पेच्छिऊण परमत्थं। मुचदि गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव॥२३ अर्थात् जो ग्राम, नगर या वन में पर वस्तु को देखकर उसे ग्रहण करने का भाव छोड़ देता है, उसका तृतीय अचौर्य महाव्रत होता है। __ जैन साधु अचौर्य व्रत के पूर्णतया पालक होते हैं तथा कराधान से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है, अतः यहाँ अचौर्याणुव्रत पर ही विचार प्रासंगिक है। अचौर्याणुव्रत का लक्षण : __पञ्चाणुव्रतों के प्रसंग में तृतीय अचौर्याणुव्रत का लक्षण करते हुए श्री समन्तभद्राचार्य ने लिखा है "निहितं वा पतितं वा सुविस्मृतं वा परस्वमदिसृष्टम्। न हरति यन्न दत्ते तदकृशचौर्यादुपारमणम्॥२४ अर्थात् जो रखे हुए, गिरे हुए या भूले हुए या धरोहर रखे गये पर द्रव्य को न तो हरण करता है, न अन्य किसी के लिए देता है, वह स्थूल रूप से अचौर्य व्रत अर्थात् अचौर्याणुव्रत है। । प्रायः सभी श्रावकाचार प्रणेताओं ने अचौर्याणुव्रत का मिलता-जुलता स्वरूप ही वर्णित किया है। हाँ, इतना अवश्य है कि चोरी आदि पापों में प्रमाद का योग रहता है। आचार्य अमृतचन्द्र तो चोरी को भी हिंसा ही मानते हैं। उनका कथन है - 'अवितीर्णस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगात् यत्। तत्प्रत्येयं स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात्॥ अर्था नाम य एते प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम्॥ हरति च तस्य प्राणान् यो यस्य जनो हरत्यर्थात्॥२५
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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