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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
कराधान और अचौर्याणुव्रत
- डॉ. प्रशान्त जैन ईसा की दसवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध राजशास्त्री जैनाचार्य सोमदेवकृत नीतिवाक्यामृत कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र के समान उत्कृष्ट राजनीतिक रचना है। इसमें शासन संचालन के मौलिक सिद्धान्तों का बहुत ही सुचारु ढंग से प्रतिपादन किया गया है। कौटिल्य के मतानुसार स्वामी, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोश, दण्ड और मित्र ये राज्य की सात प्रकृतियाँ कही गई हैं। स्मृतिकारों ने उक्त सात प्रकृतियों को राज्य के सात अंग कहा है। यद्यपि नीतिवाक्यामृत में इन सात अंगों का ही क्रमशः विस्तृत वर्णन किया गया है, किन्तु इन्हें सप्तांग कहकर उल्लिखित नहीं किया है। शुक्राचार्य राज्य को एक पुरुष मानकर राज्य के सात अंगों की तुलना मनुष्य के शरीर के सात अवयवों से करते हैं। वे राजा को मस्तक, मंत्रियों को नेत्र, मित्रों की मान, कोश को मुख, बल (सेना) को मन, दुर्ग को हाथ एवं राष्ट्र को पैर कहते हैं। कोश की तुलना मुख से इसलिए की गई है, क्योंकि जैसे मख में खाया गया भोजन समस्त अंगों को शक्ति प्रदान कर उन्हें पष्ट करता है. वैसे ही राजकोश में धन जमा होने से सभी अंगों की पुष्टि होती है। ___ नीतिवाक्यामृत का प्रारंभ ऐसे राज्य को नमस्कार के साथ हुआ है, जिसमें प्रजा को धर्म अर्थ एवं काम इन तीन पुरुषार्थों को प्रदान करने की सामर्थ्य हो। अर्थ की महत्ता का विवेचन करते हुए श्री सोमदेवाचार्य कहते हैं कि जो मनुष्य के सभी लौकिक एवं पारलौकिक प्रयोजन की सिद्धि करता है, उसे अर्थ कहा जाता है। अतः राज्य का कर्तव्य है कि वह ऐसा वातावरण उत्पन्न करे जिससे व्यक्ति कृषि तथा अन्य उद्योग-धन्धों में लगकर अर्थ को अर्जित कर सके। अर्जित धन को दान, धर्म, परोपकार आदि श्रेष्ठ कार्यों में व्यय करने के साथ राजा को कर के रूप में भी प्रदान करने का विधान जैनाचार्यों ने किया है, ताकि राज्य के प्रजाकल्याण के कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हो सके तथा राजा के द्वारा आपद्धर्म का भी पालन