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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
31 जेणइज्ज सयल सिरियं सो बुहयण वो सिवं देउ॥२३ ।
यहाँ चूँकि रचनाकार ईश्वरवादी है अतः उसने प्रकृति को ईश्वर रचित माना है किन्तु भाव यही है कि जिस तरह ईश्वर तुम्हें प्रिय है तो उसकी बनाई प्रकृति से भी प्रेम करो। प्रकृति कल्याणकारी होती है अतः उसका संरक्षण करना चाहिए।
संदेश रासक का ऋतु वर्णन भी बड़ा प्रभावी है।
रेवंतगिरिरास में विजयसेनसूरि (1231 ई. के लगभग लिखित) ने प्रकृति का रमणीक चित्र इस प्रकार खींचा है
कोयल कलयलो मोर केकारओ सम्मए महुयर महुर गुंजारवो, जलद जाल बंबाले नीझरणि रमाउलु रेहइ,
उज्जिल सिहरु अलि कज्जल सामलु।२४ इस प्रकार हम देखते हैं कि अपभ्रंश साहित्य में प्रकृति और संरक्षित पर्यावरण के अनेक चित्र समाहित है। इनसे हम पर्यावरण के संरक्षण की प्रेरणा पा सकते हैं। आज हम नगरों में रहते हैं किन्तु नगर में रहने के साथ मानों हम भूल ही गये हैं कि नगर की समृद्धि नदी, वन, पशु-पक्षी, झरने, उद्यान आदि से भी होती है और यह मानव के संरक्षण के लिए जरूरी है। अपभ्रंश साहित्य में आगत नगर वर्णन इस बात की पुष्टि करते हैं। आज आवश्यकता है कि हम अपभ्रंश साहित्य के इन सन्दर्भो को और अधिक उजागर करें ताकि पर्यावरणीय प्रदूषण दूर हो और प्रकृति-पर्यावरण संरक्षित रहे। संदर्भ : 1. Oxfort Advanced Learners Dictionary of Current English-3rd Edition, P.292 2. Chammer's Twentieth Century Dictionary, P.312 3. पारिस्थितिकी परिचय : देवेन्द्रप्रताप नारायण सिंह, पृ. 2 4. आधुनिक जीवन और पर्यावरण : दामोदर शर्मा, हरिश्चन्द व्यास, पृ.30 5. आचार्य योगीन्दुदेव : योगसार, कारिका-59 7. अपभ्रंश साहित्य : हरिवंश कोछड़, पृ. 34