SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 रेडियोधर्मी प्रदूषण, जैविक प्रदूषण से व्यक्ति परेशान है। इसके प्रमुख कारण हैं- वाहित मल, घरेलु अपमार्जक, कीटाणुनाशक पदार्थ, अपतृणनाशी पदार्थ, धुआँ, स्वतः चल निर्वातक (Automobile Exhaust), औद्योगिक उच्छिष्ट, कूड़े करकट तथा लाशों का सड़ना, रेडियोधर्मी पदार्थ, परमाणु कचरा। इनसे बचाव का मार्ग हमें खोजना होगा। आज हो रहे हृदय, श्वास संबंधी रोग, टी.बी. एड्स, कुष्टरोग, चर्मरागादि के कारण यही प्रदूषण है। हमारे आचार्यों, कवियों ने नीरोग शरीर और निरोग आत्मा का दर्शन दुनियाँ को दिया। अपभ्रंश साहित्य की परम्परा प्रकृति से जुड़ी है। हम प्रकृतिजीवी हैं, प्रकृति प्रेमी है और प्रकृति की ओर वापिस चलो की नीति पर चलने वाले हैं। हम राजनैतिक अर्थों में नहीं किन्तु प्राकृतिक अर्थ 'Back to Nature' के पक्षधर हैं। इसी का प्रमुख सूत्र हमारे आचार्य श्रीमद् योगीन्दुदेव ने 'योगसार' (59) की इस कारिका में हमें दिया और कहा कि जेहउ सुद्ध अयासु जिय तेहउ अप्पा वुत्तु।' अर्थात् हे जीव! जैसे आकाश शुद्ध है वैसी आत्मा भी शुद्ध कही गयी है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि आज आकाश भी शुद्ध नहीं रह गया है। वह विषैली गैसों से भर गया है। प्राकृत में 'रुक्खमह' शब्द वृक्ष पूजा के लिए प्रयुक्त हुआ है। अपभ्रंश साहित्य के अध्येता श्री हरिवंश कोछड़ के अनुसारअप्रभंश भाषा का समय भाषा विज्ञान के आचार्यों ने 500 ई. से 1000ई. तक बताया है किन्तु इसका साहित्य हमें लगभग 8वीं सदी से मिलना प्रारंभ होता है। प्राप्त अपभ्रंश साहित्य में स्वयंभू सबसे पूर्व हमारे सामने आते हैं। अपभ्रंश साहित्य का समृद्ध युग 9वीं से 13वीं शताब्दी तक है।' _ अपभ्रंश साहित्य के प्रमुख रचनाकारों में हम महाकवि स्वयम्भू, महाकवि पुष्पदन्त, कवि अद्दहमाण (अब्दुल रहमान), महाकवि रइधू, जोइन्दु, विवुध श्रीधर, कवि लक्ष्मणदेव, कवि धनपल, कनकाअर, रामसिंह आदि प्रमुख हैं। इनके साहित्य में हमें प्रकृति के अनेक रूप देखने को मिलते हैं।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy