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________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 नहीं पीतीं, वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते, गायें अपना दूध नहीं पीतीं बल्कि ये सब परोपकार के लिए ही जीते हैं। कहा भी है परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः । परोपकाराय दुहन्ति गावः, परोपकारार्थमिदं शरीरम्॥ मनुष्य का संयमित जीवन पर्यावरण का हितकारक है। जैनाचार्यों का स्पष्ट मत है कि सभी प्राणी, सभी जीव तथा सभी तत्त्व मारने या हनन करने योग्य नहीं है । मन, वचन और कर्म में से किसी एक के द्वारा भी किसी प्रकार के जीवों की हिंसा न होना; ऐसा व्यवहार ही संयमी जीवन है 23 सव्वे पाणा सव्वे जीवा सव्वे सत्ता वा हंतव्या...... । तेसिंह अच्छण जो एवं, णिच्चं होयव्वणं सिया ॥ मणसा कायवक्केण एवं हवइ संजम || प्रकृति मानव की चिरसंगिनी है। मनुष्य का प्रकृति के साथ रागात्मक सम्बन्ध रहता है। प्रकृति की गोद में ही वह पला बढ़ा है। नदी, प्रपात, वृक्ष, लता, कुंज, उपवन उसे आकर्षित करते रहे हैं। वनस्पतियों ने उसकी भूख मिटायी है तो नदियों के जल ने प्यास। आकाश ने उसे आधार दिया है तो वायु प्राणवायु बनकर उसे नव जीवन प्रदान करती रही है। पृथ्वी उसे ‘अर्थ' से जोड़े हुए है। प्रकृति से छेड़छाड़, रासायनिक बहिस्राव, परमाणविक कचरा, तेजाबी वर्षा और वायुमण्डल में लगातार बढ़ रही कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा के कारण मानव के लिए पारिस्थितिक संकट उत्पन्न हो गया है। परिभाषा के अनुसार पारिस्थितिकी वह अध्ययन है जो विभिन्न जीवों के सम्बन्ध में उनके अपने-अपने पर्यावरण के विषय में किया जाता है । इसके अंतर्गत सम्पूर्ण जैव जगत् यानी कवक सहित पौधे, सूक्ष्म जीव सहित जानवर और मनुष्य तक आ जाता है। फिर स्वयं पर्यावरण भी है जिसमें जैवमण्डल में विद्यमान चेतन जीव ही नहीं बल्कि प्रकृति में क्रियाशील सचेतन शक्तियाँ भी हैं। आज वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनिप्रदूषण, स्थलीय प्रदूषण,
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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