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________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 सागारधर्मामृत में श्री पं. आशाधर जी पूर्वाचार्यो द्वारा मान्य वार्ता अथवा गुरूपास्ति में से किसी एक का उल्लेख न करके मात्र पाँच कर्मों का श्रावकों के लिए उल्लेख करते हैं। - 7 'नित्याष्टाह्निकसच्चतुर्मुखमहा कल्पद्रुमेन्द्रध्वजा विज्या पात्रसमक्रियान्वयदया- दत्तीस्तपः संयमान् । स्वाध्यायं च विधातुमादृतकृषीसेवावाणिज्यादिकः शुद्धयाप्तोदितया गृही मललवं पक्षादिभिश्च क्षिपेत् ॥ १ अर्थात् नित्यमह, अष्टाह्निकमह, सच्चतुर्मुखमह, कल्पद्रुममह और इन्द्रध्वजमह इस प्रकार पाँच प्रकार का पूजन; पात्रदत्ति, समक्रियादत्ति, दयादत्ति और अन्वयदत्ति इस प्रकार चार प्रकर का दान; तप; संयम और स्वाध्याय ये श्रावक के कर्तव्य हैं। परन्तु इन पाँचों ही कर्मों का पालन आजीविका के उपायभूत कषि, सेवा, वाणिज्य आदि के बिना हो नहीं सकती है और कृषि आदि करने में पाप से बचाव नहीं हो सकता है। अतः गृहस्थ को जिनकथित प्रायश्चित से या पक्ष, चर्या आदि धर्मस्थानों से पापों को दूर करना चाहिए। धर्मसंग्रहश्रावकाचार में पं. मेधावी ने श्री जिनसेनाचार्य का अनुकरण किया है।” कुन्दकुन्दश्रावकाचार में दया, दान, इन्द्रियदम, देवपूजा, गुरुभक्ति, क्षमा, सत्य, शौच, तप एवं अस्तेय इन दस को गृहस्थ धर्म कहा गया है। 3 पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में उद्दिष्ट क्रमानुसार श्रावक के षडावश्यक कर्मों का विवेचन इस प्रकार है - १. देवपूजा यद्यपि श्री समन्तभद्राचार्य ने श्रावक के षडावश्यकों का रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कथन नहीं किया है, तथापि उन्होंने चतुर्थ शिक्षाव्रत वैयावृत्त्य के अन्तर्गत जिनपूजन करने का विधान किया है। वे लिखते हैं'देवाधिदेवचरणे परिचरणं सर्वदुःखनिर्हरणम् । कामदुहि कामदाहिनि परिचिनुयादादृतो नित्यम्॥१४ अर्थात् आदरपूर्वक नित्य सर्व कामनाओं के पूर्ण करने वाले और काम विकार के जलाने वाले देवाधिदेव श्री जिनेन्द्र भगवान् की सर्वदुःखों की विनाशक परिचर्या (पूजा) करना चाहिए।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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