________________
अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014
सामर्थ्य उसमें आ गया।
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट हो जाता है कि अर्धमागधी का क्षेत्र मात्र मागधी और शौरसेनी के मिश्रण तक सीमित नहीं था, अपितु अत्यन्त विस्तृत था। यही कारण है कि अन्यत्र इसे सर्वभाषामयी भी कहा गया है, जैसे
नाना भाषात्मिकां द्विव्यभाषामेकात्मिकामपि।
प्रथयन्तमयत्नेन हद्ध्वान्तं नुदतीं नृणाम्।।४ अर्थात् जो उत्पत्तिस्थान की अपेक्षा एकरूप होकर भी अतिशयवश श्रोताओं के कर्णकूहर के समीप अनेक भाषाओं में परिणमन करने वाली और जीवों के हृदय का अंधकार दूर करने वाली दिव्यध्वनि को बिना किसी प्रयत्न के प्रसारित कर रहे थे।
दिव्यभाषा तवाशेष भाषा भेदानुकारिणी।
निरस्यति मनोध्वान्तम् आवाचामपि देहिनाम्।। अर्थात् समस्त भाषाओं के भेदों का अनुकरण करने वाली आपकी दिव्यध्वनि पशु-पक्षी आदि तिर्यच के भी हृदय के अंधकार को दूर करती है।
सर्वाधमागधी सर्वभाषासु परिणामिनीम्।
सर्वेषां सर्वतो वाचं सार्वज्ञी प्रणिदध्महे ।।६ अर्थात् सभी भाषाओं में पूर्णता प्राप्त करने वाली अर्धमागधी भाषा, जो कि सर्वज्ञों के साथ-साथ सभी के लिए बोधगम्य है, उस भाषा को मैं पूर्णतया धारण करता हूँ।
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि जैन परम्परा में अर्धमागधी भाषा को अत्यन्त आदर और सम्माननीय पद प्राप्त है। इसे दिव्यभाषा, आर्यभाषा आदि स्वीकार किया गया है। अर्धमागधी का उत्पत्तिस्थान एवं समय :
अर्धमागधी भाषा का उत्पत्ति-स्थान निश्चित ही मगध और उसका समीपवर्ती प्रदेश अर्थात् पूर्वी भारत रहा है। हालांकि वर्तमान में उपलब्ध आगमों की भाषा में पर्याप्त मिश्रण है और उनमें सर्वाधिक प्रभाव महाराष्ट्री का दृष्टिगोर होता है। परन्तु अधिक गहराई से शोध करने पर आगमों के अनेक संस्करणों में अर्धमागधी भाषा की कतिपय प्राचीन विशेषताएं तथा