SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 67/1 जनवरी-मार्च 2014 “निराभरणसर्वाणं निर्वस्त्रागंमनोहरम् । सत्यवक्षस्थले हेमवर्ण श्रीवत्सलाछनम्।।२१ 61 एक अन्य श्लोक से भी इस तथ्य पर प्रकाश पड़ता है कि जिन-प्रतिमा निराभरण और निर्वस्त्र होती थी। “शांत प्रसन्नमध्यस्थनाग्रस्थाविकारद्वक। सम्पूर्ण भावरूनुविद्धांग लक्षणान्वितम् ॥ शैद्रादिदोषविमुक्तं प्रातिहार्या कयक्षमुक निर्माम्य विधिना पीठे जिनबिंब निवशयेता । । २२ अर्थात्-“जो शांत, प्रसन्न, मध्यस्थ, नासाग्रस्थित अविकारी दृष्टिवाली हो, जिसका अंग वीतरागपने सहित हो, अनुपम वर्ण हो, और शुभ लक्षणों सहित हो, रौद्र आदि बारह दोषों से रहित हो, अशोक वृक्षादि प्रातिहार्यों से युक्त हो और दोनों ओर यक्ष-यक्षी से वेष्टित हो ऐसी जिन प्रतिमा को बनवाकर विधि सहित सिंहासन पर विराजमान करें ।" यह जिन मूर्ति स्थापित करने का आदर्श रूप है। जिन - प्रतिमाएँ किस वस्तु से निर्मित की जाती थीं यह भी महत्वपूर्ण प्रश्न है और साथ ही किन-किन महापुरूषों की प्रतिमाएँ बनानी चाहिए ? इनका उत्तर एक श्लोक में दृष्टव्य है - “मणिकणयरूप्पय, पित्तलमुताह लोवलाइहिं। पाडमालक्खणविहिणा, जिणाईपाडिमा घडाविज्सा।।२३ अर्थात् मणि, सोना, रूपा, पीतल, मोती, और पत्थर आदि में तीर्थकर के लक्षण निर्मित करके प्रतिमा का निर्माण करना चाहिए। आदि शब्द से तात्पर्य चित्र, लेपमय, वस्त्र व काठ की मूर्तियों का जिनकी प्रतिष्ठा विधि भी उनका प्रतिबिम्ब दर्पण में लेकर पाषाणादि प्रतिमा के समान है । २५ परन्तु विशेषतः इनमें अर्हत प्रतिमाओं की उनमें भी तीर्थकर अर्हत की प्रतिमाओं की है। अर्हत की प्रतिमा से तीर्थंकर की प्रतिमा को व्यक्त करने के लिए प्रत्येक तीर्थकर का चिह्न उनकी प्रतिमा पर बना दिया जाता है । २६ सिद्ध की प्रतिमा शरीर के आकार की देहमात्र होती है और उनमें प्रतिहायादि नहीं होते हैं । २७
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy