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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 सहित अज्ञान बन्ध का हेतु है, उससे बंध है। किन्तु मोही का मोह वीत जाये तो मोहरहित अज्ञान बंध का हेतु नहीं है उससे बंध नहीं होता है। अतः अज्ञान कथञ्चित् बंध का हेतु है कथञ्चित् नहीं। किसी प्रकार मोह रहित अल्पज्ञान से मोक्ष होता है। मोह सहित अल्पज्ञान से तो बंध ही होता है। अतः अल्पज्ञान कथञ्चित् मोक्ष का हेतु है और कथञ्चित् बंध का हेतु भी है। यह सिद्ध हो जाता है।
संसार में प्राणियों की विचित्रता का उल्लेख करते हुये आचार्य समन्तभद्र बहुत महत्वपूर्ण और गंभीर उपदेश देते हैं -
"कामादिप्रभवश्चित्रः कर्मबन्धानुरूपतः। तच्च कर्मस्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्ध्यशुद्धितः।। शुद्ध्यशुद्धी पुनः शक्ती ते पाक्यापाक्यशक्त्वित्।
साद्यानन्दी तयोर्व्यक्ति स्वभावोऽतर्कगोचरः।।७२ संसार है। जहाँ जीवों का जन्म-मरण आदि के लिये गमनागमन रूप व्यवहार अच्छी तरह से अर्थात् निर्वाध रूप से हो सके वह संसार (सम्यक् सरणम् संसारः) है। अथवा जिसके कारण जीव यह संसरण करते हैं, वह संसार है। संसार में नाना जीव हैं और उनमें जो विचित्रता है वह अकारण नहीं है। आचार्य समन्तभद्र ने इंगित कर दिया है कि जीवों में जो कामादि वासनाओं या व्यवहारों, क्रियाकलापों की विचित्रता है वह उनके द्वारा बांधे गये कर्मों के अनुसार ही है। कर्मबंध भी जीवों को अकारण नहीं होता है। अपने योग अर्थात् योग्य कारणों के मिलने से ही जीव में कर्म का बंध होता है। जिन मोह और योग्य अर्थात् योग्य कारणों के मिलने से ही जीव में कर्म का बंध होता है। जिन मोह औरयोग्य जन्य परिणामों से जीव कर्मों से बंधता है उन्हें जीव ही करता है। जीव में वे परिणाम शुद्धि और अशुद्धि के कारण माने जा सकते हैं अर्थात् जीव जब अपनी शुद्धि का अभाव जानकर या उसे भूलकर या उससे अनजान रहकर अशुद्धि स्वरूप अशुद्ध योग और उपयोग को करता है अर्थात् मोह रागादिक परिणामों और मन-वचन-काय की क्रियाओं को करता है तो उसके इस अपने कारण से उसे कर्म का बंध होता रहता है। यहाँ शुद्धि को योग्यता एवं अशुद्धि को अयोग्यता या विकृत योग्यता (विकारी परिणाम) माना जा सकता है। अथवा शुद्धि को हम यहाँ उपादान मूलक योग्यता की मुख्यता से