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________________ 37 अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 है। काल तीन है- शीत, उष्ण और साधारण।अतिशीतकाल में पानी का एक भाग और भोजन के चार भाग कल्पनीय हैं। मध्यम शीतकाल में पानी के दो भाग और तीन भाग भोजन ग्राह्य है। मध्यम उष्ण काल में भी दो भाग पानी और तीन भाग भोजन कल्पनीय है। अति उष्ण काल में तीन भाग पानी और दो भाग भोजन ग्राह्य है। सर्वत्र छठा भाग वायु संचार के लिए रखना उचित है। आहार हेतु विधान : द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं भावं वीर्य समीक्ष्य च।५ स्वास्थ्याय वर्तनां सर्वविद्धशुद्धासनैः सुधीः।।५।। अर्थात्- सुधीजन को द्रव्य, क्षेत्र, अपनी शारीरिक शक्ति, छह-ऋतु, भाव और स्वाभाविक शक्ति का अच्छी तरह विचार करके स्वास्थ्य के लिए सर्वाशन, विद्धासन और शुद्धासन के द्वारा भोजन ग्रहण करना चाहिए। द्रव्य से मतलब आहारादि से है। भूमि प्रदेश को क्षेत्र कहते हैं। यह तीन प्रकार के होते हैं- जांगल, अनूप और साधारण। जहाँ पानी, पेड़ और पहाड़ कम हों उसे जांगल कहते हैं। जांगल में वात का आधिक्य रहता है। जांगल के विपरीत अनूप में कफ की प्रधानता रहती है। जहाँ जल आदि सामान्य हो उसे साधारण कहते हैं। साधारण प्रदेश में तीनों ही सम रहते हैं। तदनुसार भोजन किया जाना चाहिए। काल से तात्पर्य ऋत और समय से है। ऋतचर्या का विधान इस प्रकार है- शरत् और बंसत ऋतु में रूक्ष तथा ग्रीष्म और वर्षाऋतु में शीत अन्नपान लेना चाहिए। रस के अनुसार शीत और वर्षाऋतु में मधुर, खट्टा और लवणीय तथा बंसत ऋतु में कटु, चरपरा और कसेला, ग्रीष्म ऋतु में मधुर और शरदऋतु में मधुर, तिक्त और कषाय रस का सेवन करना चाहिए।१६ सत्वेसणं च विद्देसणं च सुद्धसणं च ते कमसो।७।। एसण समिदिविसुद्धं णिव्वियडमवंजणं जाण।। मूलाचार ६/७०।। - एषणा समिति से शुद्ध भोजन सर्वाशन है। गुड़, तेल, घी, दही, दूध, सालन आदि से रहित और कांजी, शुद्ध तक्र आदि युक्त भोजन विद्वाशन है। बिना व्यंजन के पककर तैयार हुआ जैसा का तैसा भोजन शुद्धासन है। ये तीनों ही प्रकार का भोजन खाने के योग्य है।
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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