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________________ अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 अर्थात् श्रावक को पानी छानने का उपदेश है, किन्तु पहले सम्यक्त्व रूपी शुद्ध परिणामों से चित्त हो छानकर शुद्ध करें अर्थात् दोषों से विरक्त रहें। रात्रि भोजन विरति : (१) आहार का प्रयोजन - वेयणविज्जावच्चे किरियुद्वारे य संजमट्ठाए। तवपाणधम्मचिंता कुज्जा देहि आहारं।।४७९ ।। मूलाचार अर्थात्- भूख की वेदना का शमन करने के लिए, संयम की सिद्धि के लिए, अपनी तथा दूसरों की सेवा के लिए, तथा मुनि के छह आवश्यक कर्तव्य, ज्ञान, ध्यान आदि के लिए मुनि को आहार करना चाहिए। बुभुक्षाग्लपिताक्षाणां प्राणिरक्षा कुतस्तनी। क्षमादयः क्षुधार्तानां शुड्.क्याश्चापि तपस्विनाम्।।६२॥ अर्थात् जिनकी इन्द्रियां भूख से शक्तिहीन हो गई हैं वे अन्य प्राणियों की रक्षा कैसे कर सकते हैं? जो तपस्वी भूख से पीड़ित हैं उनके भी क्षमा आदि गुण शंकास्पद ही रहते हैं। क्षुत्पीतवीर्येण परः स्ववदार्ती दुरुद्धरः।२२ प्राणाश्वाहार शरणा योगकाष्ठाजुषामपि।।६३।। अर्थात् जिस मनुष्य की शक्ति भूख से नष्ट हो गई है वह अपनी तरह पीडित दसरे मनष्य का उद्धार नहीं कर सकता। जो योगी योग के आठ अंग की चरम सीमा पर पहुंच गए हैं उनके भी प्राणों का शरण आहार ही हैं। आहार का परिमाण : बत्तीसं किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होई।१२ पुरिसस्स महिलियारा अट्ठावीसं हवे कवला।।२१२।। अर्थात्-पुरुष के आहार का प्रमाण बत्तीस ग्रास है और स्त्री के आहार का प्रमाण अट्ठाईस ग्रास है। इतने से उनका पेट भर जाता है। सव्यञ्जनाशनेन द्वौ पानेनैकमंशमुदरस्य। भृत्वाद्धृतस्तुरीयो मात्रा तदीतक्रमः प्रमाणमलः।।३८।। अर्थात् साधु को दो भाग दाल, शाक सहित भात आदि से भरना चाहिए और उदर का एक भाग जल आदि पेय से भरना चाहिए तथा चौथा भाग खाली रहना चाहिए। इसका उल्लंघन करने पर प्रमाण नामक दोष होता है। काल की अपेक्षा इसमें परिवर्तन करने का विधान 'पिण्डनियुक्ति' में
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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