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अनेकान्त 67/4, अक्टूबर-दिसम्बर, 2014 संपूर्ण मानवता के कल्याण के लिए जैन दर्शन की, तर्कपूर्ण एवं विज्ञान सम्मत अनूठी देन इस प्रकार है-१. जल गालन, २. रात्रि भोजन विरति। जल गालन :
जैन मार्ग में जल को छानकर ही प्रयोग में लाना, श्रावक की त्रेपन क्रियाओं में सम्मिलित है। निर्धारित विधियों से शुद्ध किया गया, जीव रहित जल प्रासुक कहलाता है।
भा.पा./टी०/१११/२६१/२१३ के अनुसार वर्षा का जल प्रासुक है। यतिजन वर्षाऋतु में वर्षायोग धारण करते हैं। वर्षाकाल में वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान करते हैं। उस समय वृक्ष के पत्तों पर पड़ा हुआ वर्षा का जो जल यति के शरीर पर पड़ता है, उससे उसको अपकायिक जीवों की विराधना का दोष नहीं लगता क्योंकि वह जल प्रासुक होता है।
रत्नमाला/६३-६४ के अनुसार पाषाण को फोड़कर निकाला हुआ अर्थात् पर्वतीय झरनों का, अथवा रहट द्वारा ताड़ित हुआ और वापियों का गरम-गरम ताजा जल प्रासुक है।
व्रत विधान संग्रह/३१५ के अनुसार गर्म जल प्रासुक होता है परन्तु उबाला हुआ जल २४ घण्टे तक प्रासुक या पीने योग्य रहता है, और उसके पश्चात् बिना छने के समान हो जाता है। छना हुआ दो घड़ी तक ही प्रासुक रहता है। २ घड़ी या ४८ मिनट बाद पुनः छानने की आवश्यकता होगी। लवंग, हरड से प्रासक किया गया जल छः घंटे तक चलेगा। इस विधि में यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि पानी का स्वाद व रंग बदल जाए। छन्ने द्वारा जल प्रासुक करने की विधि में सागर धर्मामृत/३/१६६ के अनुसार छोटे छेदवाले या पुराने कपड़े से छानना योग्य नहीं है। क्रियाकोष/पं. दौलतराम/२४४० के अनुसार रंगे हुए या पहने हुए वस्त्र से जल नहीं छानना चाहिए। जल विधान संग्रह/३० पर उद्धृत ३६ अंगुल लम्बे और २४ अंगुल चौड़े वस्त्र को दोहरा करके उसमें से जल छानना चाहिए। परन्तु व्यवहार में छन्ना इतना बड़ा होना चाहिए कि दोहरा करने पर बर्तन के मुख से तीन गुना चौड़ा हो, ताकि बिना छना पानी बर्तन में न आवे। पानी छानकर उसका विलछन या जोवानों वहा सम्हालकर पहुंचा देनी चाहिए, जहां से पानी भरा हो।