SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 47 उपरोक्त गुणों के साथ ही किसी न किसी आकृति को भी अवश्य धारण करती है। वस्तु मात्र को आकृति प्रदान करने वाला गुण प्रदेशत्व गुण ही है। इसी गुण के कारण जीव, धर्म और अधर्म द्रव्य को असंख्यात प्रदेशी, आकाश को अनन्त प्रदेशी, पुद्गल को संख्यात्, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी कहा जाता है।७ अमूर्तत्व गुण - जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल में यह गुण पाया जाता है। जीव यद्यपि अमूर्तिक है, परन्तु प्रदेशत्व गुण के कारण वह जिस शरीर में जाता है, उसी आकृति को धारण कर लेता है । क्रिया के कारण वस्तु के आकार में भी परिवर्तन हो जाता है। जीव और पुद्गल ये दोनों ही क्रियावान् हैं। अतः इन दोनों में ही आकार परिवर्तन होता है। शेष द्रव्यों में आकार तो है परन्तु उनमें निष्क्रियता है, इसी कारण उनमें आकार परिवर्तन नहीं होता है। मूर्तित्व गुण स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण वाला जो होता है, उसी में मूर्तित्व गुण पाया जाता है। उक्त धर्म पुद्गल के हैं अतः मूर्तित्व गुण पुद्गल में ही होता है। मूर्तित्वपना ही आकृति का नियामक होता है। लेकिन यहाँ प्रदेशों के जिस आकार को ग्रहण किया गया है, वह मूर्तिक और अमूर्तिक सभी द्रव्यों में समान रूप से पाया जाता है। अतिसूक्ष्म होने के कारण परमाणु यद्यपि दिखाई नहीं देते परन्तु उनसे निर्मित वस्तुओं की आकृति दिखाई देती है। इससे स्पष्ट है कि उनके कारणभूत परमाणु कुछ न कुछ आकृति अवश्य रखते हैं । ३८ इस प्रकार वस्तु में अस्तित्व आदि षट् सामान्य गुण पाये जाते हैं इन छहों सामान्य गुणों के क्रम की भी सार्थकता है। वस्तु वही है जो सत्तात्मक है । इसीलिए अस्तित्व गुण को सर्वप्रथम रखा है, अस्तित्वयुक्त वस्तु का प्रयोजन भूत कार्य अवश्य होता है । द्रव्यत्वगुण के बिना प्रयोजन भूत कार्य सम्भव ही नहीं है, इन तीनों गुणों से युक्त वस्तु प्रमेय का विषय अवश्य होती है । द्रव्यों की सत्ता को पृथक् पृथक् रखने वाला अगुरुलघुत्व गुण और आश्रयभूत प्रदेशत्व गुण अन्त में कहा गया है । ३९ गुणों को द्रव्य के समान कथञ्चित् अनित्य भी कहा गया है। यद्यपि गुणों की इस नित्यानित्यात्मकता के विषय में जैनेतर दर्शनों में विवाद पाया जाता है किन्तु जैनदर्शन द्रव्य के समान गुणों की नित्यानित्यात्मकता को
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy