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________________ अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 रहे, रागादि से आप उपयोग हो न भ्रमाये तब तक निर्विकल्प दशा है। (सप्तम अधिकार प. २११) (२) ज्ञान का एकाग्र होना ध्यान : णाणमय विमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण। वाहिजरमरणवेयण डाह विमुक्का सिवा होंति।।१२५।।भाव पा० अर्थ- भव्य जीव ज्ञानमयी निर्मल शीतल जल को सम्यक्त्वभाव सहित पीकर और व्याधि स्वरूप जरा-मरण की वेदना को भस्म करके मुक्त अर्थात संसार से रहित 'शिव' अर्थात परमानंद रूप सुख रूप होते हैं। इसलिये भव्य जीवों को यह उपदेश है कि ज्ञान में लीन होओ। ध्यानं विनिर्मलज्ञानं पुंसां संपद्यते स्थिरम्। हेम क्षीणमलं किं न कल्याणत्वं प्रपद्यते।।९/१४ ।।योगसार प्रा० अर्थ - पुरुषों-मानवों का-निर्मल ज्ञान जब स्थिर होता है तो वह 'ध्यान' हो जाता है। (ठीक है) किट्ट- कालिमादिरूप मल से रहित हुआ सुवर्ण क्या कल्याणपने को प्राप्त नहीं होता? होता ही है, उस शुद्ध स्वर्ण को 'कल्याण' नाम से पुकारा जाता है। स्थिर निर्मल ज्ञान ही ध्यान है, वही कल्याणकारी है। मुनि नागसेन ने तत्त्वानुशासन में श्रुतज्ञान रूपी स्थिर मन को ध्यान कहा है। श्रुतज्ञानेन मनसा यतो ध्यायन्ति योगिनः। ततः स्थिरं मनोध्यानं श्रुतज्ञानं च तात्त्विकम्।।६८॥ पूर्व श्रुतेन संस्कारं स्वात्मन्यारोपयेत्ततः। तत्रैकाग्रं समासाद्य नकिंचिदपि चिन्तयेत्।।१४४।। अर्थ- सर्वप्रथम श्रुतज्ञान के द्वारा आत्मा में श्रुतज्ञान का संस्कार करे और तदन्तर उसमें एकाग्र होकर कुछ भी चिंतन न करें। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में ज्ञानपद के ग्रहण लीन संतुष्ट और तृप्त होने का निर्देश दिया और कहा कि उससे उत्तम सुख मिलेगा। एदम्हि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि। एदेण होहि हित्तो होहदि तुह उत्तम सोक्खं।।२०६।।
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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