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अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 के द्वारा इस जीव को धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान होता है, अतः संवर ध्यान का कारण है- ऐसा चिंतन करना चाहिये। यथा -
सुह जोगेसु पवित्ती, संवरणंकुणदि असुहजोगस्स। सुह जोगस्सणिरोहो, सुद्धवजोगेण संभवदि।।६३।। सुद्ववजोगेण पुणो, धम्म सुक्कं होदि जीवस्स। तम्हा संवर हेदू झाणो त्ति विचिंतए णिच्चं॥६४।।
- वारसाणुवेक्खा-संवरानुप्रेक्षा-६३/६४ ध्यान का स्वरूप:
योग से शुभाशुभ पुदगलकर्म परमाणुओं का आगमन होता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से कर्मो का बंध होता है। अनादि संयोगी पर्याय में एकत्व और ममत्व भाव के कारण जीव शुद्ध ज्ञायक स्वभाव वाले त्रिकाली आत्मा का पृथक से अनुभव नहीं कर पाता है। भेद-ज्ञान के द्वारा द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से भिन्न आत्मा का जब बोध होता है तब पर पदार्थों के प्रति इष्ट-अनिष्ट बुद्धि का अभाव हो जाता है और ज्ञान में झलकने वाले ज्ञेयाकारों तथा आत्मा में उत्पन्न होने वाले भाव्य-रागादिक भावों से आत्मा अपने को भिन्न मात्र ज्ञायक रूप समझने/मानने/अनुभूत करने लगता है। इससे पराश्रित परिणति का रूपांतरण स्वाश्रित परिणति की ओर होने लगता है। शुद्ध ज्ञायक आत्मा स्वभाव के अनुभव और प्रतीति हेतु आत्म ज्ञान और ध्यान आवश्यक है। उससे संवर होता है। संवर के कारक हैं-सम्यकत्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग। निर्जरा का प्रमुख हेतु आत्म ध्यान है। आत्म ध्यान से कर्मों का क्षय कर जीव निर्वाण-मुक्ति प्राप्त करता है। (१) एकाग्र चिन्ता निरोध :
धवला टीकाकार आचार्य वीरसेन स्वामी ने ध्यान तप का स्वरूप इस प्रकार कहा है'उत्तम संहननस्य एकाग्रचिंता निरोधो ध्यानम्'
(षटखंडागम पुस्तक १३,५.४.२६ पृ०६४) उत्तम संहनन वाले का एकाग्र होकर चिंता का निरोध करना ध्यान नाम का तप है। आ० वीरसेन स्वामी ने १२ का संदर्भ दिया है -