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________________ अनेकान्त 67/3, जुलाई-सितम्बर 2014 ध्यान का स्वरूप : एक चिंतन 19 • डॉ. राजेन्द्र कुमार बंसल वर्तमान में ध्यान और योग की चर्चा जन-साधारण का विषय बन गयी है। जैनधर्म, वैदिक धर्म और बौद्धधर्म में इन शब्दों का प्रयोग प्रायः अध्यात्मसाधना के धरातल पर हुआ है। किन्तु अब भौतिक उपलब्धियों, यथा निरोगता एवं स्वास्थ्य लाभ के लिये इनका प्रयोग किया जाने लगा है। संस्कृत का योग शब्द अब आंगल भाषा के कारण 'योगा' बन गया है उसी प्रकार जैसे केरल राज्य केरला हो गया । एकाग्रता का नाम ध्यान है। ध्रुव स्मृति एकाग्रता है। एक वस्तु पर स्मृति निरंतर होती है वह एकाग्रता बन जाती है। ज्ञान व्यग्र होता है और ध्यान एकाग्र ध्यान के बिना आत्म-दर्शन नहीं होता । ध्यान से कर्मों का क्षय होता है। योग का अर्थ है- बांधना, जोड़ना आदि। पातंजल योग दर्शन में 'चित्तवृत्तियों के निरोध के अर्थ में योग को स्वीकार किया है, जो युक्ति का हेतु है । इस दृष्टि से योग वह पद्धति है जिसके द्वारा आवागमन का बंधन छूटकर आत्मा का परमात्मा से समागम हो जाये। जैन परम्परा में 'योग' शब्द का विशिष्ट अर्थ है। मन, वचन, काय के निमित्त आत्मप्रदेश का परिस्पन्द योग है। योग के निमित्त से कर्मों का आगमन होता है। अतः योग है वह आश्रव-बंध है। योग को समाधि और ध्यान के अर्थ में प्रयुक्त किया है। योग का गोपन गुप्त कहलाता है। जैन परंपरा में ध्यान का मुख्य प्रयोजन कर्मों की निर्जरा द्वारा आत्मा को विशुद्ध करना है और चित्त को विकल्पों एवं क्षोभ से मुक्त कर निर्विकल्प दशा में स्थित करना है। ध्यान तप का उत्कृष्ट सोपान है। आ० वीरसेन ने इच्छा निरोध के साधन द्वारा रत्नत्रय की प्राप्ति बताना है। अतः इच्छा-वासनाओं का निरोध करना इष्ट है। इच्छाओं का निरोध ही तप है। और अंतरंग तपों में ध्यान तप निर्णायक प्रयोजन भूत है। ध्यान तप के समय आत्मा का उपयोग अंतरवर्ती होता है, उस काल में इच्छा निरोध सहज हो जाता है । इच्छाओं के संयमन और निरसन के बिना आध्यात्मिक साधना
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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