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________________ अनेकान्त 67/2, अप्रैल - जून 2014 87 न पूजयार्थस्त्वपि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्त वैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातुचित्तंदुरिताञ्जनेभ्य ॥ हे भगवन ! आप वीतराग हैं, अतः आपको पूजा - स्तुति से कोई प्रयोजन नहीं है, आप वैर-विरोध से रहित हैं, अतः आपको निंदा से भी कोई प्रयोजन नहीं है फिर भी हे प्रभो ! जो आपके गुणों का स्मरण करता है, उसका मन पाप रूपों से रहित हो जाता है। स्तुतिविद्या के ११४वें श्लोक में एवं स्वयंभूस्तोत्र के ६९वें पद में आचार्य कहते हैं जो एकाग्रचित्त होकर स्तुति करता है वह आपके गुणानुवाद, प्रेम व भक्तिभाव के द्वारा विशिष्ट सौभाग्य को प्राप्त होता है । यहाँ दोनों में ही जो भी कर्ता है, वह पाप से रहित हो जाता है, ऐसा कहकर सभी प्राणियों के कल्याण की संभावना व्यक्त की है। आचार्य समन्तभद्र प्रथम साधक आचार्य हैं जिन्होंने एक ओर एकान्तवादियों की संकीर्ण मानसिकता की उग्रता को शिथिल कर समन्वय एवं सर्वोदयी संदेश देकर विश्वबन्धुत्व की कामना की तो दूसरी ओर रत्नकरण्डक श्रावकाचार जैसे सरल और संस्कृत भाषा शैली में श्रावकों के लिए आदर्श आचार संहिता Code of Cunduct के लेखन से आने वाली पीढ़ी को धर्म से जुड़ने हेतु प्रोत्साहित किया। उन्होंने जीवन और आचारों की मीमांसा नपे तुले शब्दों में करते हुये मानव मात्र के नैतिक जीवन का मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश की। रत्नकरण्डक श्रावकाचार के १९वीं व २०वीं कारिका में आ० समन्तभद्र स्वामी ने सम्यक्दर्शन के आठ अंगों में प्रसिद्ध आठ लोगों का नामोल्लेख किया है - तावदंजनचौरोड.गे, ततोऽनन्तमतिः स्मृता। उद्दायनस्तृतीयेऽपि, तुरीये रेवतीमता ॥ १९ ततो जिनेन्द्र भक्तोऽन्यो, वारिषेणस्ततः परः। विष्णुश्च वज्रनामा च, शेषयोर्लस्यातांगतौ ।। २० २० श्रा० प्रथम अंग में अंजन चोर, द्वितीय अंग में अनन्तमयी, तृतीय अंग में उद्दायन राजा, चौथे अंग में रेवती रानी, पांचवे अंग में जिनेन्द्र भक्त सेठ, छठे
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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