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________________ 80 अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 पं. जुगलकिशोर 'मुख्तार' स्मृति व्याख्यानमाला २२ दिस. २०१३ में दिया गया व्याख्यान - आचार्य समन्तभद्र का सर्वोदय तीर्थ ___ डॉ. सुशील जैन, मैनपुरी बहुगुणसम्पद्सकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम्। नयभक्त्यवतंसकलं तवदेव मतं समन्तभद्रं सकलम्।। उक्त कारिका में उन्होंने अपना नाम समन्तभद्र दिया है। स्तुतिविद्या ग्रन्थ के ११६वें काव्य से एक अर्थ निकलता है “शान्तिवर्म कृतं"। व्याख्याकार इसका अर्थ शान्ति वर्मान्त का लिखा मानते हैं परन्तु अन्य किसी मुनिराज के नाम में वर्मान्त शब्द का प्रयोग न होने से ऐसा विचार किया जाता है कि यह उनके गृहस्थावस्था का नाम हो सकता है और इस तथ्य की पृष्टि इस बात से होती है कि मदम्ब, गंग और पल्लव आदि वंशों में उत्पन्न अनेक क्षत्रिय राजाओं का नाम वर्मान्त पाया जाता है। इस प्रकार वे चोल राजवंश के राजपुत्र थे, क्षत्रिय थे, दक्षिण के फणि मंडल अंतर्गत उरगपुर के राजा थे जो कावेरी के तट पर बसा हुआ बन्दरगाह था एवं उस समय विशाल जनपद था।(आप्तमीमांसा की ताड़ प्रति के आधार से)। सारस्वताचार्यों में सर्वप्रमुख आचार्य समन्तभद्र स्वामी थे। इनकी समकक्षता श्रुतधराचार्यों से भी की जा सकती है। जिस प्रकार आचार्य उमास्वामी संस्कृत के प्रथम सूत्रकार हैं, उसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र प्रथम संस्कृत कवि और प्रथम स्तुतिकार हैं। मणुवकहल्ली स्थान में उन्हें कर्मोदय से भस्मक व्याधि हो गयी थी, जिसका निराकरण काशी में हुआ था। वाराणसी में आचार्य समन्तभद्र की स्तुति से पिण्डी फट जाने पर भगवान चन्द्रप्रभु की चतुर्मुखी प्रतिमा प्रकट होने पर जब राजा शिवकोटि ने उनका परिचय पूछा तो उन्होंने कहा - आचार्योऽहं कविरह वादिशट्पण्डितोऽहं। देवज्ञोऽहं भिषगहमहंमांत्रिकस्तान्त्रिकोऽहं।। राजन्नस्या जलधिविलयामेखलायामिलाया - माज्ञासिद्धः किमित बहुना सिद्धसरास्वतोऽहम्॥३॥
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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