SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 68 अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 होती है। पुनश्च किसी भी संज्ञी तत्त्व (जीवादिक) का प्रतिषेध-निषेध या अभाव उसके प्रतिषेध्य के विना कैसे सम्भव है इस प्रकार कहीं पर भी जीवादिक संज्ञा से अभिहित संज्ञियों का प्रतिषेध संभव नहीं है। परिणामतः द्वैतसिद्धि अपरिहार्य हो जाती है। आचार्य समन्तभद्र के द्वारा प्रस्तुत कारिकायें इस प्रकार हैं - "अद्वैतकान्तपक्षेऽपि दृष्टो भेदो विरुध्यते। कारकाणां क्रियायाश्च नैकं स्वस्मात् प्रजायते॥ कर्मद्वैतं फलद्वैतं लोकद्वैतञ्च नो भवेत्। विद्याविद्याद्वयं न स्याद्बन्धमोक्षद्वयं तथा।। हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद् द्वैतं स्याद्धेतुसाध्ययोः। हेतुना चेद्विना सिद्धिद्वैतं वाड्.मात्रतो न किम्।। अद्वैतं न विना द्वैतादहेतुरिव हेतुना। संज्ञिनः प्रतिषेधो न प्रतिषेध्यादृते चित्॥२७ एक अद्वैत सत्ता से पृथक कुछ भी उपलब्ध नही है - ऐसे अद्वैतैकान्त पक्ष का निरसन करने के उपरान्त आचार्य समन्तभद्र पृथक्त्वैकान्त का निरसन करने हेतु लिखते हैं - "पृथक्त्वैकान्तपक्षेऽपि पृथक्त्वादपृथक् तु तौ।। पृथक्त्वे न पृथक्त्वं स्यादनेकस्थो ह्यासौ गुणः।।"२८ इस श्लोक में नैयायिकवैशेषिकों के उस पृथक्त्वाद का खंडन है जिसमें वे गुण को गुणी से, अवयव को अवयवी से, क्रिया को क्रियावान् से, सामान्य को सामान्यवान् से और विशेष को विशेषवान् से पृथक् कहते हैं। यहाँ गुण गणी आदि में सर्वथा पृथक्त्व मानें तो प्रश्न होता है कि गुण और गुणी (द्रव्य) क्या पृथक्त्व गुण से पृथक् हैं या अपृथक ? यदि पृथक्त्व गुण द्रव्य आदि से पृथक् मानेंगे तो द्रव्याश्रयाभाव के कारण वह गुण ही नहीं ठहरेगा। गुण तो किसी एक द्रव्य के आश्रय में रहता है तभी वह स्वलक्षण भी बनता है क्या अनेक द्रव्यों में स्थित मानकर भी उसे गुण कहा जाये। तथा द्वितीय पक्ष में पृथक्त्व गुण को द्रव्य आदि से अपृथक्
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy