SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 49 भावों का निमित्त पाकर पुद्गल द्रव्य आप ही कर्म अवस्था को धारण कर लेते हैं यदि आत्मा धर्म-पूजन-अहिंसा आदि प्रशस्त रागादि परिणमन करता है तो शुभबंध होता है और यदि अप्रशस्त मोहादि करता है तो पाप बंध होता है। जिस प्रकार लाखों वर्षों तक भूगर्भ में दबा काला कोयला - कार्बन तत्त्व, अपनी कालिमा को दूर कर चमकता हुआ हीरा बन जाता है और फिर विशेष यंत्रों से घर्षण और मार्जन से उसकी अलौकिक आभा, कान्ति व पारदर्शिता आ जाती है। इसी प्रकार यह जीवात्मा अनादिकाल से निगोद में दवा पड़ा रहता है, वहाँ से निकलने पर एकेन्द्रियादि पर्यायों में इसका चैतन्य गुण प्रकाशित नहीं हो पाता। मनुष्य भव पाकर, सद्गुरू से संसर्ग व सम्यक्चारित्र की रगड़ से इसका अनन्त ज्ञानादि स्व-चतुष्ट्य प्रकाश में आता है और तप आदि से कर्मों की कालिमा दूर होकर सिद्ध पद को प्राप्त कर लेता है। अतः पुरुषार्थ- पुरुष (आत्मा) का अर्थ यानी प्रयोजन उस सर्वोच्च सिद्ध पद पाना है जहाँ शाश्वत-शान्ति है। आत्मा को वह पद किस उपाय से मिल सकता है, इस ग्रन्थ में बताया है। पुरुषार्थ- चार बताये गये हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। प्रारंभ के तीन पुरुषार्थ तो इस लोक के गृहस्थों (श्रावकों) के लिए बताये गये हैं। चौथा पुरुषार्थ संसार के दुःखों से सदा के लिए छूटने के लिए- मोक्ष पुरुषार्थ है। संसार के दुःखों से घूटने का उद्यम ही सर्वोत्तम पुरुषार्थ है। इस पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय - पूर्ण रत्नत्रय है जिसका उपदेश इस ग्रन्थ में श्रावकों के लिए किया गया है। प्रत्येक प्राणी सुख-शान्ति चाहता है, परन्तु इसको पाने का उपाय भूले हुए हैं। आचार्य अमृतचन्द्र देव, जीवों को उस रत्नत्रय-धर्म का उपदेश कराना चाहते हैं। रत्नत्रय है - सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। यही आचार्य का अभिधेय है। यह रत्नत्रय धर्म-निश्चय व व्यवहार रूप नयाश्रित है। व्यवहार नय से धर्म- सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्र रूप तीन तरह का है, परन्तु निश्चय नय से धर्म वीतरागता रूप ही है। एक श्रावक अपनी योग्यता व क्षमता पूर्वक उक्त चारों पुरुषार्थों को साधता है। वह न्यायोचित ढंग से अर्थ का उपार्जन करता है। स्वदार संतोष व्रत को पालता हुआ, स्वपरिणीता के साथ संतान प्राप्ति के लिए कामेच्छा करता है अतः वह भी पुरुषार्थ में लिए गया है, क्योंकि उससे श्रावक- कुल परम्परा बनी रहती है। प्रमादवश यदि श्रावकोचित पथ से भटकता है, तो
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy