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________________ 48 अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 पुरुषार्थसिद्धि का स्वरूप और उपाय : एक चिन्तन प्राचार्य पं. निहालचन्द जैन आचार्य अमृतचन्द्र - जैन वाड्.मय में प्रखर भास्वर के समान दसवीं शताब्दी के ऐसे महान आचार्य हैं, जिनका नाम आ. कुन्दकुन्ददेव, उमास्वामी और समन्तभद्र के पश्चात् बड़े आदर के साथ लिया जाता है। "पुरुषार्थसिद्ध्युपाय” इनकी मौलिक रचना है, जिसे श्रावकों की आचार-संहिता' कह सकते हैं। इस ग्रन्थ में पुरुष के अर्थ की सिद्धि के उपाय को बताया गया है। पुरुष नाम है आत्मा का, जो चेतन स्वरूप है, स्पर्श रस गंध वर्ण से रहित अमूर्तिक है। पुरुष = पुर यानी उत्तम चैतन्य गुण उनमें जो + शेते यानी स्वामी होकर रहे, आनन्द लेवे, उसका नाम पुरुष है। दूसरे शब्दों में- ज्ञान दर्शन चेतना के स्वामी का नाम पुरुष है। चेतना- आत्मा का असाधारण लक्षण है, जो अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव इन तीन दोषों से रहित है। परिणामों की अपेक्षा चेतना तीन प्रकार की होती है - १. ज्ञान-चेतना २. कर्म-चेतना ३. कर्म-फल-चेतना। जब चेतना, शुद्ध ज्ञान स्वभाव रूप परिणमन करती है, तो ज्ञान-चेतना कहलाती है। जब यह चेतना रागादि कार्य रूप परिणमन करती है तो कर्म-चेतना और जब यह सुख-दुःख आदि भोगने रूप परिणामों को करती है तो कर्म-फल चेतना कहलाती है। अब प्रश्न यह उठता है कि चैतन्य पुरुष के अशुद्धता कैसे और क्योंकर हो गई ? जिसके कारण इसको अपने अर्थ की सिद्धि करने की आवश्यकता पड़ी। समाधान है- इस आत्मा की अनादिकाल से ही रागादि परिणामों में परिणमन करने के कारण अशुद्ध दशा हो रही है। द्रव्य कर्म से रागादिभाव होते हैं और रागादि भावों से फिर नवीन द्रव्य कर्मों का बंध होता है- आचार्यश्री कहते हैं - जीवकृतं परिणामं निमित्त मात्रं प्रपद्य पुनरन्ये। स्वयमेव परिणमन्तेऽत्रपुद्गलाः कर्म-भावेन।।१२।। जिस समय जीव, राग-द्वेष-मोह भाव रूप परिणमन करता है, उस समय उन
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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