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________________ 36 अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 करने का प्रयत्न नहीं करता, इसी प्रकार भूख-प्यास आदि का भी प्रतीकार नहीं करता, जीवन-भर के लिए समस्त प्रकार के आहार के विकल्प को तथा समस्त अभ्यंतर व बाह्य परिग्रह को त्याग देता है, निरंतर अनुप्रेक्षा रूप स्वाध्याय में लीन रहता है। कुछ आचार्यों के मत में अनुरोध किए जाने पर वह बहुत थोड़ा धर्मोपदेश देता है। इस प्रकार इंगिणीमरण की साधना करके कोई साधु तो समस्त क्लेशों से छूटकर मुक्त हो जाता है, तो कोई मरकर वैमानिक देव होता है। बहरहाल वह मुक्ति की ओर उन्मुख अवश्य होता है। अब पंडितमरण के तीन प्रकारों में से अवशिष्ट भक्तप्रतिज्ञा या भक्तप्रत्याख्यान की चर्चा अभीष्ट है। भगवती आराधना की विजयोदया टीका में भक्तप्रतिज्ञा को व्याख्यायित करते हुए कहा गया है- 'भज्यते सेव्यते इति भक्तं, तस्य पइण्णा त्यागो भत्तपइण्णा। इतरयोरपि भक्तप्रत्याख्यानसंभवेऽिप रूढ़िवशान्मरणविशेषे शब्दोऽयं प्रवर्तते। भाव यह है कि 'भक्त-का अभिप्राय आहार से है और 'प्रतिज्ञा' का अर्थ त्याग है, इस प्रकार आहार का त्याग कर मरण करना 'भक्तप्रत्याख्यान' है। यद्यपि आहार का त्याग अन्य दोनों मरणों में भी होता है, तथापि इस लक्षण का प्रयोग रूढ़िवश मरणविशेष अर्थात् 'भक्तप्रतिज्ञा' या 'भक्तप्रत्याख्यान' के लिए ही किया जाता है। यह 'भक्तप्रतिज्ञा' या 'भक्तप्रत्याख्यान' इस पंचम काल में प्राप्य भी है। इस पंचम काल में प्राप्त होने वाली संहनन की क्षमता के अभाव में अन्य दोनों मरण अर्थात् इंगिणीमरणव पदोपगमनमरण प्राप्य नहीं है। खास बात यह भी है कि इस भक्तप्रतिज्ञा मरण में साधक स्वयं भी अपनी सेवा करता है और दूसरों से भी सेवा या उपकार की सेवा लेता है, इसीलिए धवला में उल्लेख मिलता है कि 'आत्मपरोपकारसव्यपेक्षं भक्तप्रत्याख्यानमिति/ इस भक्तप्रत्याख्यान' के सविचार और अविचार के भेद से दो प्रकार कहे गए हैं और अविचार के भी निरुद्ध, निरुद्धतर व परमनिरुद्ध आदि तीन भेद तथा निरुद्ध के भी प्रकाश और अप्रकाश रूप दो प्रकार माने गए हैं। भक्तप्रतिज्ञा' या 'भक्तप्रत्याख्यान' मरण पर भगवती आराधना में चर्चा भी विस्तार से की गई है। आचार्य शिवार्य सविचार भक्तप्रत्याख्यान पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि सहसा मरण के उपस्थित न होने की स्थिति में यह मरण साहस और पराक्रम व बल से युक्त साधु के होता है।६ ठीक इसके विपरीत अविचार भक्तप्रत्याख्यान सहसा
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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