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अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014
गतांक से आगे....
प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव एवं अर्धमागधी भाषा : एक अध्ययन
• पद्म मुनि
५. अनादि, असंयुक्त 'द्' प्रायः बना रहता है कहीं-कहीं 'त्' और 'य' भी बन जाता है, जैसे- प्रदिशः > पदिसो (आचा०), भेद > भेद, अनादिकं > अणादियं (सूअ० २, ७), नदति > णदति, जनपद > जणवद, वेदिहिति (ठा० क्रमशः ३६९, ४५८, ४५९) इत्यादि।
'द्' > 'त्' जैसे- यदा > जता, पाद > पात, निषाद > निसात, नदी> नती > मृषावाद > मुसावात, वादिक > वातित, अन्यदा > अन्नता, कदाचित् > कताती (ठा० क्रमशः ३१७, ३४६, ३९३, ३९७, ४५०, ४५१, ४५८, ४५९) आदि।
___ 'द्' > 'य' जैसे- प्रतिच्छादन > पडिच्छायण, चतुष्पद > चउप्पय आदि।
६. अनादि, असंयुक्त ‘य्' प्रायः कायम रहता है, अनेकशः यह 'त्' में भी परिवर्तित हो जाता है, जैसे-वायव > वायव, प्रिय > पिय, निरय > निरय, इन्द्रिय> इन्दिय, गायति > गायइ आदि।
'' > 'त्' जैसे- स्यात > सिता, सामायिक > सामातित, कायिक > कातित, पालयिष्यिन्ति > पालतिस्संति, पर्याय > परितात, नायक > णातग, गायति > गातति, स्थायिन् > ठाति, शायिन् > साति, नैरयिक > नेरतित (ठा० क्रमशः ३१७, ३२२, ३२३, ३५७, ३५८, ३९३, ३९४, ३९७, ३९८, ३९९) इत्यादि।
७. अनादि, असंयुक्त 'व्' प्रायः बना रहता है, तथा कहीं-कहीं 'त्' और 'य' भी हो जाता है, जैसे- वायव > वायव, गौरव > गारव, भवति> भवति, अनुविचिन्त्य > अणुवीति (सूअ० १, १, ३, १३) इत्यादि।