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________________ अनेकान्त 67/2, अप्रैल-जून 2014 वर्तमान में श्रमणचर्या की विसंगतियाँ एवं निदान _ - डॉ. जयकुमार जैन श्रम को सर्वातिशयित महत्त्व प्रदान करने के कारण जैन साधु को श्रमण संज्ञा है। चर्या शब्द चर् धातु से यत् प्रत्यय और स्त्रीत्व विवक्षा में टाप् प्रत्यय से निष्पन्न रूप है, जिसके अनेक अर्थ हैं - आहार, विहार, व्यवहार, व्रत, आचरण आदि। श्रमणचर्या श्रमण की व्यवस्थिति में मेरुदण्ड के समान मानी गई है। __श्री बट्टकेराचार्य द्वारा प्रणीत मूलाचार श्रमणचर्या का विवेचक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें ग्रन्थकार ने प्रारंभ में ही मूलगुणों में विशुद्ध सभी सयंतों को नमस्कार करके पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियनिरोध, षड् आवश्यक, लोच, आचेलक्य, अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थितिभोजन एवं एकभक्त ये २८ मूलगुण कहे हैं। मूल जड़ को कहते हैं। जैसे जड़ के बिना वृक्ष की स्थिति संभव नहीं है, वैसे ही इन मूलगुणों के बिना श्रमण की स्थिति संभव नहीं है। यदि कोई श्रमण मूलगुणों को धारण किये बिना उत्तरगुणों का या अन्य चर्या का पालन करता है तो उसकी स्थिति वैसी ही कही गई है, जैसी कि उस व्यक्ति की जो अपनी अंगुलियों की रक्षा के लिए मस्तक को काट देता है। उपर्युक्त २८ मूलगुणों में लोच से एकभक्त तक सात मूलगुण साधु/श्रमण के बाह्य चिन्ह हैं। मूलगुणों के फल का प्रतिपादन करते हुए मूलाचार में कहा गया है कि इन मूलगुणों को विधिपूर्वक मन-वचन-काय से पालन करके मनुष्य जगत् में पूज्य होकर अक्षय सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।२।। (१) आहारचर्या : औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीनों शरीरों और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों के ग्रहण को आहार कहते हैं। श्री बट्टकेराचार्य ने मूलाचार के पिण्डशुद्धि नामक अधिकार में आहारचर्या तथा उसकी शुद्धि का विस्तृत विवेचन किया है। आहार के छ्यालिस दोषों का विवेचन करते हुए उन्होंने धर्म के आचरण के लिए छह कारणों से आहार
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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