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अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013
के बिना कर्मक्षय रूप मोक्ष नहीं होता और मोक्ष के बिना अनंत चतुष्टय रूप निर्वाण नहीं होता। कहा भी है
अप्पा अप्पम्मि रओ, सम्माइट्ठी हवेइ फुडु जीवो।
जाणइ तं सण्णाणं चारदिह चारित्तमग्गु त्ति॥२१७॥ अर्थात् आत्मा में लीन आत्मा ही सम्यग्दृष्टि होता है। जो आत्मा को यथार्थ रूप में जानता है, वही सम्यग्ज्ञान है और आत्मा में स्थित रहना ही सम्यक्चारित्र है। इस तरह से रत्नत्रय परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं। किसी एक से मोक्षमार्ग की सिद्धि नहीं होती, किन्तु इनमें भी सम्यग्ज्ञान का अपना ही वैशिष्ट्य है। क्योंकि रत्नत्रय के मध्य में इसी का क्रम है।
आचार्य कुंदकुंददेव ने रत्नत्रय रूप इन तीनों की परिभाषा बड़ी ही कुशलता से मात्र एक गाथा में करते हुए कहा है
जीवादि सद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं।
रायादि परिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो|समयसार १५५॥ अर्थात् जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) है, उन्हें यथार्थरूप में जानना सम्यग्ज्ञान है और राग-द्वेषादि का त्याग करना सम्यक चारित्र है। यही रत्नत्रय स्वरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र मोक्ष का मार्ग है। ज्ञान का स्वरूप और महत्त्व - सामान्यतः "जो जाणदि सो णाणं" (प्रवचनसार गाथा 35) अर्थात् जो जानता है, वही ज्ञान है। आचार्य वीरसेन स्वामी के अनुसार “भूतार्थ प्रकाशनं ज्ञानम्" (धवला 1/143) अर्थात् सत्यार्थ का प्रकाश करने वाली शक्ति विशेष ज्ञान है। सर्वार्थसिद्धि (1/6) में आचार्य पूज्यपाद कहते हैं"जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञातिमात्रं वा ज्ञानम्"- अर्थात् जो जानता है, वह ज्ञान है (कर्तृसाधन), जिसके द्वारा जाना जाये, वह ज्ञान है, (करण साधन), अथवा जानना मात्र ज्ञान है (भावसाधन)।
इस प्रकार “येन-येन प्रकारेण जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् (सर्वार्थसिद्धि 1/5) अर्थात् जिस-जिस तरह से जीव-अजीव आदि पदार्थ अवस्थित है, उस उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान के पहले 'सम्यक् विशेषण संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय (विमोह) जैसे मिथ्या ज्ञानों का निराकरण करने हेतु रखा गया है। आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक (1/1/2) में 'नयप्रमाणविकल्पपूर्वको जीवाद्यर्थ याथात्म्यावगमः सम्यग्ज्ञानम्' - अर्थात् नय और प्रमाणों के द्वारा जीवादि तत्त्वों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहा है और आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने "णाणं णरस्स सारो" कहकर ऐसे ही सम्यग्ज्ञान को मनुष्यों के लिए सारभूत बतलाया है। क्योंकि ज्ञान ही हेय और उपादेय को जानता है।
वस्तुतः समणसुत्तं में प्रतिपादित ज्ञानमीमांसा उस सम्यग्ज्ञान की विवेचना और महत्ता का दिग्दर्शन कराती है, जो सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र के साथ मिलकर या एकरूप होकर मोक्षमार्ग प्रशस्त करती है। इसीलिए जिनशासन में ज्ञान किसे कहते हैं? अनेक दृष्टियों से इसका विवेचन करते हुए कहा है
तेण तच्चं विबुज्झेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तं णाणं जिणसासणे।।२५२॥