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________________ समणसुत्तं में प्रतिपादित ज्ञान - मीमांसा प्रो. फूलचन्दजैनप्रेमी तीर्थकर महावीर के २५००वें निर्वाण वर्ष की अनेक उपलब्धियें में 'समणसुत्तं' जैसा आगम शास्त्र एक स्थायी सर्वमान्य महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराओं के प्राकृत आगमों से विषयानुसार गाथायें चयनकर इसे पूज्य जिनेन्द्र वर्णी जी ने भूदान और गांधीवादी एवं सर्वोदयी चिंतनधारा के लिये समर्पित राष्ट्रसंत विनोबा भावे की प्रेरणा से प्रस्तुत ग्रंथ का यह स्वरूप प्रदान किया। समणुसत्तं के चार खण्डों में मोक्षमार्ग नामक द्वितीय खण्ड में जहाँ रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का विवेचन है, उसमें सम्यग्ज्ञान की अच्छी मीमांसा की गई है। वस्तुतः समणसुत्तं में प्रतिपादित जैनधर्म-दर्शन के सभी सैद्धान्तिक पक्षों का अपना स्वतंत्र, मौलिक, वैज्ञानिक एवं अविवादित सार्वजनीय वैशिष्ट्य है। इसके अपने विशिष्ट परिभाषिक शब्द भी है। ज्ञान विषयक चिंतन के क्षेत्र में, तो इसका वैशिष्ट्य देखते ही बनता है। सम्यग्ज्ञान के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान- इन पांच भेदों का अपना महत्त्व है। इसी तरह सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हेतु जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का श्रद्धान आवश्यक है। इनमें भी जहाँ मोक्ष तत्त्व अन्तिम लक्ष्य है, वहीं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों में भी अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष ही है। इसीलिए जहाँ तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वामी ने “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग” कहकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इस रत्नत्रय के एकत्ररूप को मोक्षमार्ग का साधक बतलाया है, वही समणसुत्तं में भी कहा है कि दंसणणाण चरित्ताणि, मोक्खमग्गो त्ति सेविदव्वाणि । साधूहि इदं भणिदं तेहिं दु बंधो व मोक्खो वा ॥ १९३ ॥ अर्थात् जिनेन्द्रदेव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष का मार्ग बतलाया है । साधुओं को इनका आचरण करना चाहिए। यदि वे स्वाश्रित होते हैं तो इनसे मोक्ष प्राप्त होता है । और यदि वे पराश्रित होते हैं तो बन्ध होता है। वस्तुत् ये रत्नत्रय परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। इसीलिए कहा है नाणं चरित्तहीणं, लिंगग्गहणं च दंसणविहीणं । संजमहीणं च तवं जो चरइ निरत्थयं तस्स ॥ २१० ॥ अर्थात् सम्यक् चारित्र के बिना सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन के बिना मुनिलिंग का ग्रहण और संयमविहीन तप का आचरण करना निरर्थक है। क्योंकि आगे कहा है कि - ना दंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ २११ ॥ अर्थात् सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता। ज्ञान के बिना चारित्र गुण नहीं होता । चारित्रगुण
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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