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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 ___ हर्मन यॉकोवी नैं बतंक ठववो व िजीम मेंज (पूर्व के पवित्र ग्रन्थ) नामक
ग्रन्थमाला के दो जैन-सूत्र ग्रन्थों का संपादन एवं अनुवाद दो खण्डों में प्रकाशित किये थे और कल्पसूत्र का सम्पादित संस्करण सन्१८७९ ई. में, हरिभद्र(आठवीं सदी) कृत सनत्कुमार-चरित का सम्पादन-अनुवाद सन् १९२१ तथा भविसयत्त-कहा(धनपाल कृत)का संपादन प्रकाशन सन्१९१८ ई. में प्रकाशित कराये थे।
इसके अतिरिक्त भी सन् १९०० के आस-पास उन्होंने (हर्मन याकोवी ने) महाराष्ट्री-प्राकृत की कुछ चुनी हुई लोकोपयोगी कथाओं के आधार पर महाराष्ट्र-प्राकृत की व्याकरण सम्बन्धी विशेषताओं पर प्रकाश डाला। हर्मन याँकोवी के प्रति जैन-समाज का आदर भावः हर्मन-याकोवी के उक्त शोध-संपादन कार्यों से प्रभावित होकर भारतीय जैन-समाज ने उनके प्रति कृतज्ञता कर सन् १९४८ में उनके शोध-निबन्धों का “जैनधर्म का अध्ययन" नामका निबन्ध-संग्रह प्रकाशित किया है।
जर्मनी में जैन-शोध एवं समीक्षात्मक-मूल्यांकन की यह परम्परा आगे भी चलती रही और हेल्मुथ-फान ग्लासनैप ने सन् १९२५ में -“भारतीय धर्मों में जैनधर्म के मोक्षमार्ग का स्वरूप" नामका ग्रन्थ लिखा तथा बाल्टर शुब्रिग (१८८१-१९६९ ई.) ने सन् १९३५ में “जैन-तीर्थकरों के उपदेश" नामक ग्रन्थ लिखकर उसका प्रकाशन कराया।
जर्मनी के संवदेनशील विद्वानों-प्राकृत के सुप्रसिद्ध वैयाकरण और “प्राकृत भाषाओं का व्याकरण (सन् १९००) के लेखक डॉ.पिशेल तथा पालि-भाषा
और साहित्य के इतिहास के लेखक गायगिर ने जब अनुभव किया कि प्राकृत-भाषाओं तथा आधुनिक भारतीय भाषाओंकी संयोजक-कडी(अपभ्रंश) की अब अनदेखी या उपेक्षा नहीं की जा सकती.तब उनकी प्रेरणा से हामबर्ग (जर्मनी) के डॉ.लुडिविंग-आल्सडॉर्फ तथा बर्लिन (जर्मनी) के डॉ.क्लोज ब्रूह्न ने अपभ्रंश-भाषा और साहित्य पर शोध-समीक्षात्मक कार्य किया। ___ इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि जर्मनी के विद्वानों ने प्राकृत-अपभ्रंश-भाषा, जैनधर्म एवं उसके साहित्य पर तो शोध-परक-अभूतपूर्व कार्य किये।