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अनेकान्त 66/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2013
(ई.पू. २६९) तथा जैन सम्राट खारवेल (ई.पू.१८० के आसपास) तथा ईस्वी सन् की प्रारम्भिक लगभग दो सदियों तक उपदेशों एवं प्राचीन ऐतिहासिक-शिलालेखों में प्राकृत भाषा के ही प्रयोग किए जाते रहे।
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युग-प्रधान आचार्य कुन्दकुन्द (ई.पू. १०८-०१२) ऐसे प्रथम जैनाचार्य हैं, जिन्होंने संभवतः सर्वप्रथम पाषाण-लेखन छोड़कर भूर्जपत्र या ताड़पत्र - प्रयोग और हथोड़ी-छैनी के स्थान पर काष्ठ लेखनी एवं वानस्पतिक-रंगों से अपना लेखन- कार्य प्रारंभ कर आगम-सम्मत् ८४ पाहुड़-ग्रन्थों की रचना की । विदेशी भाषाओं / बोलियों में प्राकृतों का सम्मिश्रणः
यह तथ्य भी बड़ा रोचक एवं गरिमापूर्ण है कि जैन - साहित्य की सार्वजनीनता तथा जैन- पर्यटकों की वैदेशिक यात्राओं और विदेशी संपर्कों तथा उनसे मैत्रीभाव के कारण प्राकृत के अनेक शब्दों का विदेशी भाषाओं पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि वे उनमें दूध में मिश्री के समान घुल-मिल गये । उनके कुछ उदाहरण देखिये -
विश्व की शब्द-परम्परा का यदि तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो उससे विदित होता है कि प्राकृत शब्द दुग्ध में शर्करा के मिश्रण के समान सर्वत्र मिल सकते हैं। मेरी दृष्टि से इसका कारण सम्भवतः यही रहा होगा कि सहस्राब्दियों पूर्व से ही पणियों (बनियों या व्यापारियों) का व्यापारिक दृष्टि से विदेशों में आना-जाना लगा रहता था। इनके माध्यम से व्यापार के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं भाषिक आदान-प्रदान भी होते रहे थे।
पणियों (ऋग्वेकालीन) के बाद भी इस परम्परा को जारी रखा परवर्ती जैन व्यापारियों सेठ चारुदत्त, श्रीपाल, जिनेन्द्रदत्त, भविष्यदत्त, अचल, नट्टल साहू आदि महासार्थवाहों ने।
रूस में सुरक्षित जैन साहित्यः
रूस से प्राच्य भारतीय विद्या के अध्येता एवं शोधकर्ता लेविन अ. विगासिन ने अपने अध्ययन-क्रम में बतलाया है कि रूस में प्राकृत एवं जैन-विद्या के क्षेत्र में पर्याप्त शोध-कार्य हुए हैं। वहाँ प्राकृत की अनेक जैन-पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं। साथ ही कुछ जैन-ग्रन्थों पर शोध कार्य के साथ-साथ उनका प्रकाशन भी वहाँ से किया गया है।
विगासिन के अनुसार रूस के विभिन्न शास्त्र - भण्डारों में:वररुचि कृत कविताओं के संग्रह (नीतिसार एवं नीतिरत्न)
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