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अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013
'भेदसंघाताभ्यामुत्पद्यमानत्वात्' अनैकान्तिक होने से इस साध्य की सिद्धि नहीं कर पाता है कि पृथिवी आदि पुद्गल की पर्यायें ही हैं।
आचार्य विद्यानन्दि स्वामी का कहना है कि शब्द गुण नही है, अपितु वह भी पुद्गल ही पर्याय ही है। यदिशब्द को पुद्गल की पर्याय नहीं माना जायेगा तो बाह्य श्रोत्र इन्द्रिय द्वारा शब्द के ग्रहण करने की योग्यता का अभाव हो जायेगा। क्योंकि सभी बाह्य श्रोत्र इन्द्रियाँ पुद्गल की पर्यायों को ही जानती हैं। हेतु में कहे गये भेद का अर्थ केवल विभाग नही है, अपितु पुद्गल पिण्ड स्वरूपस्कन्ध के निवारण को भी भेद कहा जाता है। इसी प्रकार संघात का अर्थ भी केवल संयोग नही है, अपितु मिट्टी के पिण्ड आदि के स्कन्धभूत परिणामको संघात कहा जाता है। अतः टुकड़े हो जाने या उनके मिल जाने को स्थूल रूप से भेद और संघात कहा गया है। जो ज्ञानादि पुद्गल की पर्यायें नहीं है, वे भेद और संघात से उत्पन्न नहीं है।अतः पुद्गल की पर्यायों में भेदसंघात से उत्पद्यमान होना अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं है। यहःशब्द भी पुद्गल की पर्याय है, अतः शब्द भी भेद-संघात से उत्पन्न होता है। दिशा स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, आकाश में अन्तर्भूत हैः वैशेषिक-मान्य नौ द्रव्यों में दिशा को एक स्वतन्त्र द्रव्यमाना गया है। इस संदर्भ में आचार्य विद्यानन्दि स्वामी का कहना है - 'दिशोऽपि नात्रोपसंख्यानं कार्यमाकाशेऽन्तर्भावात्ततो द्रव्यान्तरत्वाप्रसिद्धेः। अर्थात् द्रव्यों में दिशा नामक स्वतंत्र द्रव्यका उपसंख्यान नहीं करना चाहिए।क्योंकि उसका आकाश नामक द्रव्य में ही अन्तर्भाव हो जाता है। अतः दिशा के आकाश से भिन्नद्रव्यपने की सिद्धि नहीं होती है। इस प्रकार वास्तव में दिशा आकाश के अतिरिक्त कोई भिन्न गुण-पर्याय वाला द्रव्य नहीं है।सूर्योदय आदिके कारण पूर्व आदिदिशाओं का व्यवहार प्रसिद्ध है। अतः उसका आकाश में अन्तर्भाव आसानी से हो जाता है।
उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि अजीव पाँच ही द्रव्य हैं, वैशेषिकों द्वारा मान्य आत्मभिन्न आठ अजीव द्रव्यों की मान्यता अयक्तिक है।
क्रमशः अगले अंक में
अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, एस.डी. (पी.जी.) कालेज, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) क्र १ से २२ तक के सन्दर्भ (अगले अंक 67/1 में देखें)