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________________ अनेकान्त 66/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2013 __ अर्थात् प्रकृति (जड़ प्रधान तत्त्व) से महान (बुद्धि),उससे अहंकार, अहंकार से१६ पदार्थों (५ ज्ञानेन्द्रियाँ,५कामेन्द्रियाँ,१मन,५ तन्मात्र) तथा इनमें५ तन्मात्रों से ५ महाभूत उत्पन्न होते हैं। जैन दर्शन के अनुसार जीवों की बहुत्वता के समान अजीव की भी बहुत्वता स्वीकार की गई है। इसीलिए कारिका २ में 'अजीवाः स्युः' बहुवचनान्त कहकर अनेक अजीव पदार्थों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की गई है। अजीवविषयक वैशेषिकों की मान्यता का निरसनः वैशेषिकदर्शन के अनुसार द्रव्य,गुण, कर्म,सामान्य(जाति),विशेष,समवाय और अभाव ये सात पदार्थ माने गये हैं। उनके अनुसार अभाव चार प्रकार का होता है - प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव और अन्योन्याभाव। वैशेषिक अभाव नामक सप्तम पदार्थ को तुच्छाभाव रूप मानते हैं। वे अजीव में नञ् समास में प्रयुक्त अभावको अत्यन्ताभाव या तुच्छाभाव रूप मानते हैं।किन्तु जैनों की दृष्टि में तुच्छाभाव किसी भी प्रमाण का विषय नही होता है। अतः वास्तव में गतिहेतुत्व आदि अनेक गुणों से युक्त जीवभिन्न पदार्थों को अजीव माना गया है।अजीव पदार्थों में सत्ता, द्रव्यपना आदि की अपेक्षा जीव से समानता भी है। भावान्तरस्वभावस्यैवाभावस्य व्यवस्थापनात्१० कहकर आचार्य विद्यानन्दि स्वामी ने वैशेषिकों के द्वारा अजीव में जीव के अभाव को तुच्छाभाव रूप मानने की मान्यता का खण्डन किया है। वैदान्तियों की मान्यता का खण्डनः अद्वैतवादी वेदान्ती एक मात्र ब्रह्म की ही वास्तविक सत्ता मानते हैं तथा सम्पूर्ण जगत्को स्वप्न की तरह प्रतिभास स्वीकार करते हैं। यदि वेदान्तियों की दृष्टि मान ली जाये तब तो धर्म, अधर्म, आकाश काल और पुद्गल सांश हो जायेंगे, जबकि उनकी दृष्टि में एक मात्र ब्रह्म ही सत् है और वह निरंश है। आचार्य विद्यानन्दि स्वामी ने प्रथम सूत्र के तृतीय वार्तिक में ‘नाप्यनंशता कहकर वेदान्तियों के ब्रह्मद्वैतवाद का खण्डन तथा धर्मादि अजीव द्रव्यों की सत्ता का स्थापन किया है। अजीव के भेद-मूर्तिकत्व-अमूर्तिकत्व, अस्तिकायत्व-अनस्तिकायत्व
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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