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________________ अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 अर्थोपलब्धि में मन का महत्त्व : जिस प्रकार चक्षुष्मान् व्यक्ति को दीपक के प्रकाश में स्फुट अर्थ की उपलब्धि होती है, वैसे ही मनोज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से युक्त जीव की चिन्ताप्रवर्तक मनोद्रव्य के प्रकाश में अर्थ की उपलब्धि स्पष्ट होती है। शब्द आदि अर्थ में छह प्रकार (पांच इन्द्रिय और एक मन) का उपयोग होता है। अविशुद्ध चक्षुष्मान् को मंद, मंदतर प्रकाश में रूप की उपलब्धि अस्पष्ट होती है, वैसे ही असंज्ञी संमूर्छिन पंचेन्द्रिय को अर्थ की उपलब्धि अस्पष्ट होती है, क्योंकि क्षयोपशम की मंदता के कारण उसमें मनोद्रव्य को ग्रहण करने की शक्ति भी बहुत अल्प होती है। मूर्च्छित व्यक्ति का शब्द आदि अर्थों का ज्ञान अव्यक्त होता है, वैसे ही प्रकृष्ट ज्ञानावरण के उदय के कारण एकेन्द्रिय जीवों का ज्ञान अव्यक्त होता है। इनकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदि जीवों का ज्ञान शुद्धतर, शुद्धतम होता है। मानसिक प्रकाश के अभाव में अर्थ की उपलब्धि मंद, मंदतर होती चली जाती है। इसको विशेषावश्यकभाष्य में उदाहरण से समझाते हैं कि चक्रवर्ती के चक्ररत्न में जो छेदन करने की शक्ति होती है, वह सामान्य तलवार आदि में नहीं होती है। दोनों में छेदक का गुण होते हुए भी शक्ति में हीनता है, उसी प्रकार सामान्य रूप से जीवों में चैतन्यगुण समान होने पर भी समनस्क जीवों में अवग्रह आदि सम्बन्धी वस्तुबोध की जो पटुता होती है, वैसी पटुता एकेन्द्रिय आदि अमनस्क जीवों में नहीं होती है।४ मन का उपयोग: मन एक साथ अनेक अर्थो को ग्रहण कर सकता है, किन्तु एक साथ दो क्रियाएं या दो उपयोग नहीं हो सकते।क्योंकि उपयोग युगपत् नहीं होते। सामान्य की अपेक्षा से एक साथ अनेक अर्थों का ग्रहण होता है। विशेष की अपेक्षा एक समय में एक ही अर्थ का ग्रहण होता है। क्या मन और मस्तिष्क एक हैं? ___ मन और मस्तिष्क में गहरा सम्बन्ध है। इन्द्रियों के द्वारा विषय का ग्रहण होता है, मस्तिष्क उनका संवेदन करता है तथा मन उस पर पर्यालोचन अर्थात् हेयता-उपादेयता के चिन्तन का कार्य करता है। मस्तिष्क मन की प्रवृत्ति का मुख्य साधन अंग है, इसीलिए उसके विकृत हो जाने से मन भी विकृत हो जाता है। फिर भी मन और मस्तिष्क स्वतंत्र हैं।३६ मन इन्द्रिय या अनिन्द्रिय? जैन दर्शन में मन को अनिन्द्रिय या नोइन्द्रिय कहा है, जिसका अर्थ इन्द्रिय का अभाव न होकर ईषत् इन्द्रिय है। श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों की तरह मन भी ज्ञान का साधन है, फिर भी रूपादि विषयों में प्रवृत्त होने के लिए उसको नेत्र आदि का सहारा लेना पड़ता है। यह मन की परतंत्रता है। इन्द्रियाँ नियत देश में स्थित पदार्थ को विषय करती हैं तथा कालान्तर में स्थित रहती हैं, लेकिन मन आत्मा का लिंग होते हुए भी प्रतिनियत देश में स्थित पदार्थ को विषय नहीं करता तथा कालान्तर में स्थित नहीं रहता है, इसीलिए इसे अनिन्द्रिय कहते हैं। मन को अनिन्द्रिय कहने का कारण यह भी है कि मन इन्द्रिय की तरह प्रतिनियत अर्थ को नहीं
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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