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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 मन का अधिकारी कौन? ____ व्यक्त चेतनत्व की अपेक्षा से संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणी ही मन के अधिकारी होते हैं, संज्ञीश्रुत की अपेक्षा से दूसरे प्राणी भी मन के अधिकारी हैं। संज्ञी श्रुत के वर्णन में तीन प्रकार की संज्ञाएं बताई हैं,३१ जो निम्न प्रकार से हैं :___ (अ) दीर्घकालिकी संज्ञा :- जिससे जीवों में ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श करने की योग्यता हो वह दीर्घकालिकी संज्ञा कहलाती है। ऐसे जीव के श्रुत को संज्ञी श्रुत कहते हैं। जिन जीवों में यह योग्यता नहीं उन्हें असंज्ञी कहते हैं तथा उनके श्रुत को असंज्ञी श्रुत कहते हैं। अथवा जिस संज्ञा में भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का ज्ञान हो अर्थात् मैं यह कार्य कर चुका हूँ, यह कार्य कर रहा हूँ और यह कार्य करूँगा, इस प्रकार का चिन्तन दीर्घकालिकी संज्ञा है। यह संज्ञा देव, नारकी, गर्भज, तिर्यचों, गर्भज मनुष्यों में होती है तथा जिन जीवों में यह संज्ञा नहीं पायी जाती उन जीवों का श्रुत दीर्घकालिकी संज्ञा की अपेक्षा असंज्ञी श्रुत है। ___(ब) हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा :- जिसमें प्रायः वर्तमान कालिक ज्ञान हो उसे हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं अर्थात् अपने शरीर की रक्षा के लिए इष्ट वस्तुओं को ग्रहण करने तथा अनिष्ट वस्तुओं का त्याग करने रूप जो उपयोग वर्तमानकालिक ज्ञान होता है, उसे हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं। यह संज्ञा द्वीन्द्रिय आदि असंज्ञी जीवों में होती है तथा जिन जीवों में यह संज्ञा नहीं पायी जाती, उन जीवों का श्रुत, हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा असंज्ञी श्रुत है। ___ (स) दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा :- सुदेव, सुगुरु और सुधर्म तथा कुदेव, कुगुरु और कुधर्म क्या है? इसका सम्यग् यथार्थ ज्ञान, जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर-निर्जरा, बंध, मोक्ष, इन नव तत्त्वों का सम्यग् यथार्थज्ञान और रुचि रूप जो सम्यग्दर्शन है, वह दृष्टिवाद की अपेक्षा (सम्यक्त्व की अपेक्षा) संज्ञा है। जिन जीवों में यह दृष्टिवाद संज्ञा पायी जाती है, उन जीवों का सम्यग् श्रुत, दृष्टिवाद संज्ञा की अपेक्षा (सम्यग्दर्शन की अपेक्षा) संज्ञीश्रुत है तथा जिन जीवों में यह दृष्टिवाद संज्ञा नहीं पायी जाती, उन जीवों का मिथ्याश्रुत, दृष्टिवाद संज्ञा की अपेक्षा (मिथ्यादर्शन, मिश्रदर्शन की अपेक्षा) असंज्ञीश्रुत है। एक अपेक्षा से यह संज्ञा मात्र चौदह पूर्वी साधकों को होती है।
उक्त व्याख्याओं से संज्ञी जीव तीन प्रकार के हो गए हैं, किन्तु यहाँ पर मन का जो अधिकारी है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा की अपेक्षा से बताया गया है। यह बाद विशेषावश्यकभाष्य से भी सिद्ध होती है। जिसके द्वारा अतीत की स्मृति और भविष्य की चिन्ता (कल्पना) की जाती है, वह कालिकी अथवा दीर्घकालिकी संज्ञा है। यही मन है। मनोलब्धि सम्पन्न जीव मनोवर्गणा के अनन्त स्कन्धों को ग्रहण कर मनन करता है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है। यह संज्ञा मनोज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न होती है।२२
अतः उपर्युक्त वर्णन के आधार पर कह सकते हैं कि जिस जीव में दीर्घकालिकी संज्ञा का विकास होता है, वह संज्ञी (समनस्क) और जिसमें इसका विकास नहीं होता, वह असंज्ञी (अमनस्क) है।३