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अनेकान्त 66/3, जुलाई-सितम्बर 2013 दिगम्बर ग्रन्थ धवला के अनुसार मन स्वतः नोकर्म है। पुद्गल विपाकी अंगोपांग नाम कर्म के उदय की अपेक्षा रखने वाला द्रव्य मन है तथा वीर्यान्तराय और नो-इन्द्रिय कर्म क्षयोपशम से जो विशुद्धि उत्पन्न होती है, वह भाव मन है। अपर्याप्त अवस्था में द्रव्य मन में योग्य द्रव्य की उत्पत्ति से पूर्व उसका सत्त्व मानने से विरोध आता है, इसलिए अपर्याप्त अवस्था में भाव मन के अस्तित्व का निरूपण नहीं किया गया है।
“मणिज्जमाणे मणे" मनन करते समय ही मन होता है अर्थात् मनन से पहले और मनन के बाद मन नहीं होता। जैसे कि बोलने से पहले और बोलने के बाद भाषा नहीं होती है, लेकिन जब तक बोलते हैं तभी भाषा होती है। वैसे ही मन के लिए भी समझना चाहिए। जिससे विचार किया जा सके वह आत्मिक शक्ति मन है और इस शक्ति से विचार करने में सहायक होने वाले एक प्रकार के सूक्ष्म परमाणु भी मन कहलाते हैं। पहले को भाव मन और दूसरे को द्रव्य मन कहते हैं। जैनदर्शन के अनुसार मन स्वतंत्र पदार्थ या गुण नहीं है। वह भाव मन के रूप में ही आत्मा का एक विशिष्ट गुण है। मन के प्रकार :
जैनदर्शन के अनुसार मन चेतन द्रव्य और अचेतन द्रव्य के गुण के अनुसार से उत्पन्न होता है। अतः जैनदर्शनानुसार मन दो प्रकार का होता है - १. चेतन (भाव मन) और २. पौद्गलिक (द्रव्य मन)। भाव मन जीवमय है और अरूपी है तथा द्रव्य मन पुद्गलमय है और रूपी है।
विशेषावश्यक भाष्य में बताया है कि द्रव्यमन मनोवर्गणा के पुद्गलों से बना हुआ है। यह मन का भौतिक पक्ष है। साधारण रूप से इसमें शरीरस्थ सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक अंग आ जाते हैं।
मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक रचना तंत्र में प्रवाहित होने वाली चैतन्यधारा भावमन है। दूसरे शब्दों में आत्मा से मिली हुई चिन्तन-मनन रूप चैतन्य शक्ति ही भाव मन है।
जीव में ज्ञानवरणीय कर्म के तथाविध क्षयोपशम से जो मनन करने की लब्धि होती है तथा मनन रूप उपयोग चलता है, ये दोनों भावमन' कहलाते हैं तथा उस मनन क्रिया में जो सहायक है तथा जिसका निर्माण मनः पर्याप्ति के द्वारा मनोवर्गणा के पुद्गल ग्रहण कर के हुआ है, वह 'द्रव्य मन' है। यह मन आत्मा से भिन्न है और अजीव है किन्तु वह जीव के ही होता है, अजीव के नहीं। यह बात भगवती सूत्र के शतक १३ उददेशक ७ से स्पष्ट है।११ तेरहवें गुणस्थान में मन, वचन आदि योगों का निरोध कर केवली चौदहवें गुणस्थान में जाते हैं। अतः वे 'अयोगी' कहे जाते हैं। अयोगी होकर ही आत्मा मोक्ष जाती है, अतः मोक्ष में सिद्ध भगवान् के मन नहीं होता है। ___ मलयगिरि के अनुसार - मनःपर्याप्तिनामकर्म के उदय से मन के प्रायोग्य वर्गणाओं को ग्रहण कर जो मनरूप में परिणत होने वाला द्रव्य है, वह द्रव्यमन है। द्रव्यमन के सहारे जीव को जो मन परिणाम है, वह भाव मन है।१२