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जैनदर्शन : मन का स्वरूप
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पवन कुमार जैन
जहाँ भी ज्ञान मीमांसा की चर्चा होती है, वहाँ मन की भी चर्चा होती है, क्योंकि इन्द्रिय और मन के सहयोग से ही ज्ञेय को जानकर हम ज्ञान करते हैं । अतः सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूप में मन के अस्तित्व को स्वीकार किया है तथा उसका स्वरूप निरूपित किया है। मन का अस्तित्व :
न्याय सूत्रकार का मन्तव्य है कि एक साथ अनेक ज्ञान उत्पन्न नहीं होते। इस अनुमान से वे मन की सत्ता स्वीकार करते हैं। वात्स्यायन के अनुसार स्मृति आदि ज्ञान बाह्य इन्द्रियों से उत्पन्न नहीं होता है और विभिन्न इन्द्रिय तथा उसके विषयों के रहते हुए भी एक साथ साथ सबका ज्ञान नहीं होता, इससे मन का अस्तित्व अपने आप सिद्ध हो जाता है। अन्नम्भट्ट के मतानुसार सुख आदि की प्रत्यक्ष उपलब्धि का साधन मन को माना गया है। जैनदर्शन के अनुसार संशय, प्रतिभा, स्वप्न, ज्ञान, वितर्क, सुख, दुःख, क्षमा, इच्छा आदि मन के अनेक लिंग हैं। उपर्युक्त प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि परोक्ष ज्ञान का इन्द्रियों के अलावा अन्य दूसरा साधन भी होना चाहिए जिससे कि ज्ञान होता है और वह दूसरा साधन मन ही है।
मन का स्वरूप :
मनन करना मन है अर्थात् जिसके द्वारा मनन किया जाता है वह मन है। मनोयोग्य मनोवर्गणा से गृहीत अनन्त पुद्गलों से निर्मित मन द्रव्य मन है । द्रव्य मन के सहारे जो चिन्तन किया जाता है, वह भावमन (आत्मा) है।' धवला के अनुसार जो भी भली प्रकार से (ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम आदि पूर्वक) जानता है, उसे संज्ञा या मन कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह की टीकानुसार - मन अनेक प्रकार के संकल्प विकल्पों का जाल है। जिसमें स्मृति, कल्पना और चिंतन हो वह मन है । जैसे जो अतीत की स्मृति, भविष्य की कल्पना और वर्तमान का चिंतन करता है, वह मन है । अतः जिसमें त्रैकालिक ज्ञान की क्षमता हो, वह मन है। जब स्मृति, कल्पना और चिंतन नहीं होते हैं तब मन नहीं होता है। जब मन होता है तब तीनों आवश्यक हो जाते हैं।
“मनुतेऽर्थान् मन्यन्तेऽर्थाः अनेनेति वा मनः "" अर्थात् जो पदार्थों का मनन करता है या जिसके द्वारा पदार्थों का मनन किया जाता है, वह मन कहलाता है। जैसे अर्थ के भाषण के बिना भाषा की प्रवृत्ति नहीं होती, उसी प्रकार अर्थ के मनन के बिना मन की प्रवृत्ति नहीं होती।