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________________ अनेकान्त 66/1 जनवरी-मार्च 2013 अरहंत का ध्यान करने वाला योगी स्वयं अरहंत बन जाता है, ऐसी ध्यान में अप्रतिम शक्ति है । अभ्यास के सामर्थ्य से मुनि को सर्वज्ञ के स्वरूप से तन्मयता हो जाती है तथा वह मुनि ऐसा मानने लगता है कि यह आत्मा वही सर्वज्ञ देव है, अन्य नहीं है। " तत्त्वानुशासन में इसी तथ्य को इस प्रकार प्रकट किया गया है 'परिणमते येनात्मा भावेन स तेन तन्मयो भवति । अर्हदध्यानाविष्टो भावात् स्वयं तस्मात् ॥ अर्थात् जो आत्मा जिस भाव रूप परिणमन करता है, वह उस भाव के साथ तन्मय होता है। अतः अरहन्त के ध्यान से व्याप्त आत्मा स्वयं भाव अरहन्त होता है। 12 ध्यान के अयोग्य साधुओं की पहिचान आत्मा का हित ध्यान में ही है। इस कारण जो कर्मों से मुक्त होने के इच्छुक साधु हैं, उन्हें कषायों की मन्दता के लिए तत्पर होकर कर्मों का नाश करने के लिए ध्यान ही एकमात्र अवलम्बन है। " किन्तु सिद्धान्त में ध्यान केवल मिथ्यादृष्टियों को ही नहीं, अपितु जिनेन्द्र- आज्ञा के प्रतिकूल चलित चित्त वाले साधुओं को भी निषिद्ध कहा गया है। जिनमें मुनि अवस्था में भी ध्यान की योग्यता नही है, श्री शुभचन्द्राचार्य ने उनकी पहिचान इस प्रकार बतलाई है - १. मन-वचन-कर्म में भिन्नता वाले मायाचारी । २. निर्ग्रन्थ होकर भी परिग्रह रखने वाले। ३. संयमधारी होने पर भी धैर्य से रहित । ४. कीर्ति, प्रतिष्ठा और अभिमान में आसक्त । ५. मिथ्यात्व के कारण तत्त्वों को प्रमाण रूप न मानने वाले । ६. न्य सिद्धान्तों से ठगी गई बुद्धि वाले । ७. नास्तिक वादियों की कुयुक्तियों से प्रभावित चित्त वाले । ८. रागरंजित कान्दर्पी, कैल्विषी, आभियोगिकी, आसुरी एवं सम्मोहिनी भावनाओं वाले। ९. भेद विज्ञान से रहित। १०. सुख, अणिमा-महिमादि ऋद्धि एवं रसीले भोजनांक्षी । ११. पापाभिचार खोटे कर्मों में रत । १२. धनोपार्जन में संलग्न आदि अनेकविध कार्यों में रत मुनियों को ध्यान के अयोग्य कहा है।" धनोपार्जन करने वाले साधु के लिए कहा गया है कि जैसे कोई अपनी माता को वेश्या बनाकर उससे धनोपार्जन करता है, वैसे ही जो मुनि होकर उस मुनि दीक्षा को जीवन का उपाय बनाते हैं और उसके धनोपार्जन करते हैं, वे अत्यन्त निर्लज्ज हैं। PD संदर्भ - १. पंचाध्यायी उत्तरार्ध, ८४२ ३. सर्वार्थसिद्धि, ९/२७ ५. वही, ४/९ ७. वही, ३१/१७ का उत्तराध ९. तत्त्वानुशासन, २२० २. ४. ६. ८. ज्ञानार्णव, सर्ग २५. कारिका १६ ज्ञानार्णव, सर्ग ४, कारिका ५ वही, ४ / १९ ज्ञानार्णव, ३१/१८ १०. ज्ञानार्णव, २२/४
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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