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________________ अनेकान्त 66/1, जनवरी-मार्च 2013 ये चारों प्रकार के शुक्लध्यान वजवृषभनाराच संहनन के धारी, १४पूर्वो के ज्ञाता एवं निर्मल चारित्र के धारक के ही होते हैं। शुक्ल ध्यान का फल शुक्ल ध्यान का फल साक्षात् मोक्ष की प्राप्ति है। तृतीय शुक्ल ध्यान के अनन्तर अयोग गुणस्थान के उपान्त्य भाग में मुक्ति की प्रतिबन्धक ७२ कर्म प्रकृतियों का नाश हो जाता है तथा चतुर्थ शुक्ल ध्यान प्रकट हो जाता है। तदन्तर अयोग गुणस्थान के अन्त में शेष बची १३ कर्मप्रवृत्तियां भी नष्ट हो जाती हैं तथा मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है।" चतुर्विध ध्यानों में हेयोपादेयता उपर्युक्त चतुर्विध ध्यानों में आदि के दो आर्त और रौद्र ध्यान त्याज्य हैं, क्योंकि वे खोटे हैं तथा संसार को बढ़ाने वाले हैं तथा अन्त के दो धर्म और शुक्ल ध्यान ग्राह्य हैं, क्योंकि वे परम्परया या साक्षात् मोक्ष के साधक हैं। ऐहिक फल वाले जो भी ध्यान हैं वे सब अप्रशस्त हैं तथा उनका समावेश आर्त या रौद्र के अन्तर्गत होता है। ज्ञानी मुनियों ने विद्यानुवाद पूर्व से असंख्यात प्रकार के विद्वेषण, उच्चाटन आदि कर्म प्रकट किये है।, परन्तु वे सब कुमार्ग एवं कुध्यान हैं। शुभचन्द्राचार्य का कहना है - 'स्वप्नेपि कौतुकेनापि नासद्ध्यानानि योगिभिः। सेव्यानि यान्ति बीजत्वं यतः सन्मार्गहानये।।42 अर्थात् योगी मुनियों को चाहिए कि अप्रशस्त ध्यानों को वे कौतुक से स्वप्न में भी न विचारें। क्योंकि अप्रशस्त ध्यान सन्मार्ग की हानि के लिए कारण है। खोटे ध्यान के कारण सन्मार्ग से विचलित हुए चित्त को कोई सैकड़ों वर्षों में भी सन्मार्ग में लाने में समर्थ नहीं हो सकता है, इस कारण खोटा ध्यान कदापि नहीं करना चाहिए। खोटे ध्यान कुतूहल में भी किये जाने पर अपने ही नाश के कारण बनते हैं। जो लोग रागाग्नि से प्रज्वलित होकर मुद्रा, मंडल, यन्त्र, मन्त्र आदि साधनों के द्वारा कामी-क्रोधी कुदेवों का आदर से समाराधन करते हैं, वे दुष्ट आशा से पीड़ित तथा भोगों की पीड़ा से वंचित होकर नरक में पड़ते हैं। अतः वही ध्यान उपादेय है जो कर्मों का नाश करने में समर्थ है। यद्यपि यह सत्य है कि अप्रशस्त ध्यानों से भी अनेकों लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि हो जाती है. ऐसे मन्त्रादि का भी विस्तृत विवेचन हआ है, तथापि ऐसे ध्यान करणीय नही है। क्योंकि ध्यान करने वाला योगी वीतराग का ध्यान करता हुआ वीतराग होकर कर्मों से छूट जाता है और रागी का अवलंबन करके ध्यान करने से रागी होकर क्रूर कर्मों के आश्रित हो जाता है अर्थात् अशुभ कर्मों से बंध जाता है। लौकिक ध्यानों का निर्देश मात्र ध्यान की शक्ति को दिखाने के लिए किया गया है, अन्य कोई इसका प्रयोजन नहीं है। ज्ञानार्णव में कहा गया है कि अनेक प्रकार की विक्रिया रूप असार ध्यान मार्ग का आश्रय लेने वाले क्रोधी तक को ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है, जिसका देवता भी चिंतन नहीं कर सकते हैं। फिर स्वभाव से अनन्त और जगत्प्रसिद्ध प्रभाव का धारक यह आत्मा यदि समाधि में जोड़ा जाये तो समस्त जगत को अपने चरणों में लीन कर लेता है अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।'
SR No.538066
Book TitleAnekant 2013 Book 66 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2013
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size7 MB
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