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अनेकान्त 66/2, अप्रैल-जून 2013
भगवान ऋषभदेव के पश्चात् एक लम्बे समय तक प्रकृति में पर्यावरण संतुलन की स्थिति बनी रही।
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पारिस्थितिकी तंत्र -
परिस्थितिकी तंत्र के अंतर्गत प्रकृति के विभिन्न घटकों का उनके उत्पत्ति स्थान अथवा निवास के अंतर्गत ही अध्ययन किया जाता है। ओहम (१९६३) नामक वैज्ञानिक ने इसकी परिभाषा देते हुये कहा कि यह समस्त जीवों का आपसी (परस्पर) एवं उनके आसपास मौजूद अजैविक पदार्थों से सम्बन्ध ही है। उन्होंने कहा कि जैविक एवं अजैविक घटकों में सतत रूप से विभिन्न पदार्थों का आदान-प्रदान चलता रहता है जिसे कि 'पदार्थों का चक्रण' कहा जाता है। यदि पर्यावरण के विभिन्न संघटक व्यवस्थित रूप में हों तब वहाँ का पारिस्थितिकी तंत्र सुदृढ़ होता है। अव्यवस्थित होने पर यही अवयव समूचे पर्यावरण को अनुपयोगी एवं प्रदूषण युक्त बना देते हैं।
जैन धर्म के सिद्धान्त -
सबसे पहिला एवं प्रमुख जैन सिद्धान्त "अहिंसा" का पालन करना है। सबसे मुख्य बात यह है कि जैन धर्म में बड़े जीवों की अहिंसा के साथ सूक्ष्मतम निगोदिया जैसे जीवों के संरक्षण को भी प्रमुख कर्त्तव्य बताया गया है। आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से भी सिद्ध हो गया है कि वैक्टीरिया जैसे सूक्ष्मतम एवं अदृश्य जीवों को प्रकृति की विभिन्न क्रियाविधियों के संचालन में महती भूमिका होती है। जमीन की उर्वराशक्ति बढ़ाने, वातावरण की नाइट्रोजन को प्रोटीन जैसे तत्वों में परिवर्तित करने, विशाल वृक्षों की जड़ों में रहकर उनकी वृद्धि में सहायक होने, अनेक प्रकार की जीवन रक्षक दवाओं के निर्माण, दुग्ध उद्योग आदि में इन वैक्टीरिया की महती आवश्यकता होती है। इसी प्रकार अनेक प्रकार की सूक्ष्म फफूंदियां भी प्रकृति की अनेक क्रियाविधियों में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। आंकड़ों के अनुसार इस पृथ्वी पर लगभग १३-१४ मिलियन (१ मिलियन दस लाख) प्रजातियों के जीव मौजूद हैं। यह स्वयं के परिस्थितिकीतंत्र में रहकर ही अपना समुचित जीवन यापन कर सकते हैं। थोड़ा सा भी परिवर्तन इन जीवों को संकट में डालने के लिये काफी होता है। उदाहरण के तौर पर वर्तमान में हो रहे “ग्लोबल वार्मिंग" के कारण हजारों जलीय एवं स्थलीय पशु-पक्षियों का जीवन संकटापन्न स्थिति में आ गया है।
“परिग्रह” को जैन धर्म में पापरूप माना गया है। यहां परिग्रह का अर्थ है कि आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रहण अथवा उपयोग करना । वास्तव में जैनधर्म का यह सिद्धान्त ही इस प्रकृति के विनाश को काफी हद तक बचा सकता है। आवश्यकता से अधिक संग्रहण के कारण ही वनों का विनाश एवं प्रदूषण जैसी समस्यायें उत्पन्न हुई हैं। जैनधर्म तो श्रावकों को परिग्रह मर्यादा के पालन का उपदेश सर्वप्रथम ही देता है।