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________________ प्राकृत पूजा : एक अनुशीलन 'पूजनं गन्ध माल्यादिभिः समभ्यर्चनम्' (जैन.ल. ४१९) गन्ध, मालादि के द्वारा अभ्यर्चन करना पूजा या पूजन है। परिकीर्तन (षट्खण्डागम १/१/१/२१) देवाधि-देवचरणे परिचरणं (रत्नकरण्ड गाथा ११९) परिचरण भी पूजा है। पूजा का विकास - जो पूज्य होता है, उसकी पूजा होती है, पूज्य हैं- अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। अतः पूज्य गुणों के कारण यह कहा गया - एसो पंच-णमुक्कारो, सव्व-पावप्पणासणो। मंगलाणं च सव्वेसिं, पढम होदि मंगलं। मंगलों में प्रथम मंगल अरहंत आदि हैं, वे सर्व पापों का नाश करने वाले हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में अरहंत, सिद्ध, गणधर (आचार्य), अध्यापकवर्ग और साधुओं को नमन किया। आचार्य कुंदकुंद ने ही - तीर्थकरभक्ति, सिद्ध, श्रुत, चारित्र, योगि, आचार्य, निर्वाण, नंदीश्वर, शान्ति, समाधि, पंचगुरु भक्ति एवं चैत्यभक्ति का प्राकृत में निरूपण किया। मूलाचार के रचनाकार वट्टकेर ने - “मूलगुणेसु विसुद्धे वंदित्ता सव्वसंजदेसिरसा" के आधार पर मूलगुण वाले संयतों को महत्त्व दिया। भगवती आराधना के शिवार्य ने सिद्ध एवं अरहंत की वंदना की। आचार्य सिद्धसेन ने सिद्धं सिद्वट्ठाणं णमणोवमसुह गयाणमित्ति (स.१/१) आचार्य यतिवृषभ ने संपूर्ण तिरेसठ शलाका पुरुषों का गुणानुवाद ही किया। प्राकृत के सभी काव्यकारों ने अपने अपने मंगलाचरण में पंचपरमेष्ठियों के साथ-साथ तीर्थकर ऋषभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं वर्धमान आदि को मंगल रूप माना है। अरहंत- णमोक्कारो भावणं को करेदि पयडमदी। सो सव्व-दुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण।। आ. वीरसेन जयधवला।। जो प्रकृष्टमति वाला अरहंत को नमस्कार करता है वह सभी दुःखों के क्षय को प्राप्त होता है। नियमसार एवं मूलाचार के आवश्यक नियमों में छह आवश्यक कर्मों का विवेचन है समदा थवो य वंदण - पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं। पच्चक्खाण - विसग्गो करणीयावसया छप्पि।। (मू.२२) समता/सामयिक, स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और व्युत्सर्ग में स्तव और वंदना शब्द दिए गए हैं। थव-स्तव में उसहादि-जिणवराणं (मू.२४) से चतुर्विंशति स्तव और वंदना मेंअरहंत-सिद्ध-पडिमा-तव-सुद-गुरु-गुरुण-रागादीणं से अरहंत प्रतिमा और सिद्ध प्रतिमा के साथ साथ तप एवं श्रुत में जो गुरु है उनकी वंदना को महत्त्व दिया है। जिण- पडिमाणं पणमं करेह - ज्ञाताधर्म - जिन प्रतिमाओं को प्रणाम करे ऐसा ज्ञाताधर्म आगम में भी कहा है। 'तिक्खुत्तो आयाहीणं पायाहीणं करेमि वंदामि णमस्सामि
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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