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________________ 59 जैन आगम के परिप्रेक्ष्य में षट्खण्डागम का वैशिष्ट्य २. पद्धति टीका- इस टीका के रचनाकार शामकुंडाचार्य थे। ३. चूड़ामणि टीका - इसके रचनाकार तुम्बुलूराचार्य थे। ४. समन्तभद्राचार्यकृत टीका - समन्तभद्राचार्य ने षट्खण्डागम के पांचखण्डों पर अत्यन्त सुन्दर और मृदुल संस्कृत भाषा में ४८ हजार श्लोक प्रमाण टीका रची थी। ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति टीका- इसकी रचना आचार्य वप्पदेव ने की थी । ६. धवला टीका - आचार्य वीरसेन ने वाटग्राम में षट्खण्डागम की धवला नामक टीका की रचना की । धवला टीका प्राकृत और संस्कृत मिश्रित भाषा में ७२००० श्लोक प्रमाण है। डॉ. हीरालाल जैन ने इसके लेखन का समाप्तिकाल शक संवत् ७३९ (ई. सन् ८१६) निर्धारित किया है। धवला षट्खण्डागम के केवल पांच खण्डों पर ही लिखी गयी है, छठवें खण्ड महाबन्ध पर धवलाकार ने टीका नहीं लिखी। संभवतः छठे खण्ड पर टीका न लिखने का एक कारण इसका विशाल परिमाण रहा होगा। ध्यातव्य है कि षट्खण्डागम की उपर्युक्त टीकाओं में से केवल धवला टीका ही उपलब्ध है और इसकी ताड़पत्रीय प्रतियाँ मूडबिदी (कर्नाटक) के "सिद्धान्तवसति" जिनालय में संरक्षित हैं और इनको संपादित करके सोलह पुस्तकों में प्रकाशित किया जा चुका है। यह तथ्य सर्वविदित है कि प्राकृत और संस्कृत भाषायें भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाली प्राचीनतम भाषायें हैं और इनमें उपलब्ध प्राचीनतम साहित्य में जहां एक ओर संस्कृत भाषा के साहित्य में वेद और महाभारत आदि की गणना की जाती है वहीं प्राकृ भाषा में उपलब्ध वाड्.मय में षट्खण्डागम का गौरवपूर्ण स्थान है। जिस प्रकार महाभारत का परिमाण एक लक्ष श्लोक माना जाता है। उसी प्रकार षट्खण्डागम भी आज अपनी टीका सहित लगभग इतने ही विशाल परिमाण में उपलब्ध है परन्तु सांप्रदायिक वैमनस्यता के कारण कुछ विद्वान् भारतीय वाड्.मय में षट्खण्डागम के अपेक्षित स्थान को स्वीकारने में हिचकिचाते हैं, यह चिंतनीय है। यद्यपि यह सत्य है कि षट्खण्डागम की विषयवस्तु जैनदर्शन के “कर्मसिद्धान्त" पर केन्द्रित है परन्तु इसके महत्व का अवमूल्यन नहीं होता क्योंकि इससे भारतीय दर्शन के एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त का संरक्षण तो हुआ ही है, वहीं दूसरी और भारतीय संस्कृति की प्राचीनतम भाषाओं प्राकृत और संस्कृत संरक्षण और संवर्द्धन में भी इस ग्रन्थराज और इसकी टीका धवला का अतुलनीय योगदान रहा है। संदर्भ सूची - १. तरसमुहग्गदवयणं पुण्यवरदोसविरहियं सुद्धं । आगमिदिं परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था। नियमसार, ८, आ. कुन्दकुन्द । २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ६,७ - आचार्य समन्तभद्र । ३. - .....सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदिविहरदि ति । षट्खण्डागम, १३ / ५५, सू. ८२ ४. षट्खण्डागम की शास्त्रीय भूमिका, डॉ. हीरालाल जैन, पृष्ठ ३९-४२ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परंपरा, डॉ. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य, भाग-२, पू. ४७
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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