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________________ संपादकीय श्रुतपंचमी- २६ मई २०१२ पर विशेष श्रुताराधना पर्व दिगम्बर जैन परम्परा में ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को श्रुतपंचमी या श्रुताराधना पर्व के रूप में विशेष महत्त्व है। भ. महावीर के परिनिर्वाण (ई.पू. ५२७) के ६२ वर्ष के पश्चात् श्रुत ज्ञान की परंपरा क्रमशः क्षीण होती गई और अन्त में उसका बच्चा कुछ श्रुतांश मात्र ही आ. धरसेन को प्राप्त हुआ। धरसेनाचार्य अष्टांग महानिमित्त के पारगामी लिपिशास्त्र के ज्ञाता थे। उन्हें चिंता हुई कि प्राप्त श्रुतज्ञानांश भी कहीं लुप्त न हो जाय, इसीलिए उन्होंने तत्कालीन आन्ध्रप्रदेश की 'महिमा' नगरी में चल रहे श्रमण-सम्मेलन के संघपति महासेनाचार्य को संदेश भेजा और उन्होंने उज्जवल चारित्र धारी, समस्त विधाओं में पारगामी दो सुबुद्ध मुनिराजों को उनके निकट भेजा आ. धरसेन ने मुनियों के आने के पूर्व कुन्दपुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान श्वेत वर्णी दो हृष्ट पुष्ट बैलों को स्वप्न में देखा । स्वप्नफल विचारकर प्रसन्न हुए “श्रुतदेवी जिनवाणी जयवन्त" हो । भूतबलि और पुष्पदन्त नामक दोनों मुनिराजों को धरसेनाचार्य ने श्रुत का उपदेश देना शुरू किया और आषाढ़ शुक्ल एकादशी को उसका समापन कर उन शिष्यों को अन्यत्र विहार करने की आज्ञा दी और इसे लिपिबद्ध करने को कहा। दोनों शिष्य गिरनार से चलकर अंकलेश्वर (सूरत) आये जहाँ वर्षाकाल व्यतीत करते हुए, गुरुमुख से सुने ज्ञान को लिपिबद्ध कर षट्खण्डागम कीरचना ०७५ ईस्वी में की। जो भाव श्रुत उन्होंने आत्मसात किया था, उसकी परिणति थी यह- द्रव्य श्रुत जो खण्ड - सिद्धान्त अथवा छक्खंडागम-सुत्त के नाम से प्रसिद्ध ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को पूर्ण हुआ था और आज के दिन राजा / चतुर्विध संघ एवं ग्रामवासियों ने विशेष उत्सव मनाया जो पूरे भारतवर्ष में प्रसिद्ध हुआ । १०९०-११८८ ई. में सम्राट विष्णुवर्द्धन की पट्ट महादेवी "शान्तलादेवी" ने उक्त षट्खण्डागम की एक लाख श्लोक प्रमाण धवल टीका सहित इसे ताड़पत्रों पर उत्कीर्ण कराकर जिनमंदिरों को भेंट किया था। श्रुताराधना पर्व पर हमें न केवल आगम ग्रन्थों की सुरक्षा साज-सम्हाल रखनी है बल्कि इन सिद्धान्त ग्रन्थों की आगम-वाचनाऐं आचार्यों और साधुओं के माध्यम से विद्वज्जनों एवं साधक श्रावकजनों में प्रवर्तमान रहे, ऐसी ठोस योजना मूर्तवन्त हो । उत्सव प्रेमी दि. जैन समाज ज्ञान यज्ञ के इस महत्त्व को सर्वोपरि रखकर यदि आत्म-पुरुषार्थ के लिए संकल्पित हों। इससे हमारी जैन संस्कृति का भविष्य उज्जवल बना रह सकेगा। - डॉ. जयकुमार जैन संपादक 'अनेकान्त'
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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