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________________ अनेकान्त 65/2, अप्रैल-जून 2012 44 तात्पर्य है कि निम्नांकित पाँच प्रकार की चेतन एवं अचेतन संपत्तियों की निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए। ३.२.१ क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रमाः अर्थात् खेत और मकान के प्रमाण का उल्लंघन करना। ३.२.२ हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रमाः अर्थात् चांदी, सोना आदि के प्रमाण का उल्लंघन करना। ३.२.३ धनधान्यप्रमाणातिक्रमाः अर्थात् पशुधन तथा अनाज के प्रमाण का उल्लंघन करना। ३.२.४ दासीदासप्रमाणातिक्रमाः अर्थात् दास-दासियों के प्रमाण का उल्लंघन करना और ३.२.५ कुप्यप्रमाणातिक्रमाः अर्थात् वस्त्र तथा वर्तनों के प्रमाण का उल्लंघन करना। ३.३ परिग्रह परिमाण व्रत के इन पांच अतिचारों का प्रमुख उद्देश्य यह है कि सद्गृहस्थ निर्धारित सीमाओं से अधिक संपत्ति एकत्रित न करें और अधिक संपत्ति एकत्रित होने पर उसका तुरन्त दान कर दें। ४. जैन संस्कृति ने भावना को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया है। कर्म से भावना को अधिक महत्व दिया है। प्रत्येक नियम और उसके उपनियमों के पालन करने के लिए विशेष भावनाओं की पहचान कर उनकी वैज्ञानिक ढंग से व्याख्या की है। शारीरिक शुद्धि और वचन शुद्धि के पूर्व मानसिक या भावनात्मक शुद्धि का उल्लेख करते हुए भावना को प्राथमिकता प्रदान की गई है। अतः परिग्रह परिमाण के नियम/ उपनियम का प्रभावी ढंग से संरक्षण एवं पालन सुनिश्चित करने के लिए मोक्षशास्त्र में आचार्य उमास्वामी देव ने निम्नांकित सूत्र में पांच भावनाएं उपदिष्ट की गई है :"मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च।" ७-८॥ स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पांच इन्द्रियों के माध्यम से मनोज्ञ, प्रिय या इष्ट विषयों में राग और अमनोज्ञ, अप्रिय या अनिष्ट विषयों में द्वेष नहीं रखने का प्रावधान किया ५.२ हजार वर्ष पूर्व आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार के तृतीय अधिकार में परिग्रह परिमाण अणुव्रत की निम्नांकित शब्दों में व्याख्या की है : धन-धान्यादि-ग्रन्थं, परिमाय ततोऽधि-केषु निःस्पृहता। परि-मित-परिग्रहःस्या,-दिच्छा-परिमाण-ना-मापि।।१५।। अर्थात् (धन-धन्यादि-ग्रन्थ) क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दास, दासी, कुप्य और भाण्ड इन दस बाह्य परिग्रहों को (परिमाय) परिमित रखकर (ततः) उनसे (अधिकेषु) अधिक में (निःस्पृहता) इच्छा नहीं रखना (परिमित परिग्रह) परिग्रह परिमाणव्रत (अपि) अथवा (इच्छापरिमाणनामा) इच्छापरिमाणनामक अणुव्रत (उच्यते) कहा जाता है। ५.१ आचार्य समन्तभद्र स्वामी जी ने परिग्रह परिमाण अणुव्रत के पांच अतिचारों का उल्लेख करते हुए लिखा कि : अतिवाहनतिसंग्रह, विस्मयलोभातिभारवहनानि। परिमितपरिग्रहस्य च, विक्षेपाः पन्च लक्ष्यन्ते।।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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