SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राष्ट्र और समाज के हित में परिग्रह परिमाण व्रत की उपयोगिता - सुरेश जैन, आई.ए.एस. (से.नि) प्रत्येक मानव हमारे राष्ट्र और समाज की आधारभूत इकाई है। अतः प्रत्येक मानव के विकास पर ही उसके राष्ट्र और समाज का विकास आधारित है। प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक है कि वह अपने जीवन में अपनी संस्कृति द्वारा सुस्थापित शाश्वत जीवन मूल्यों का सतत रूप से पालन करे। जैन संस्कृति सुविकसित संस्कृति है। जैन संस्कृति के महर्षियों ने सुविचार पूर्वक प्रत्येक मानव के कुछ कर्तव्य निर्धारित किए हैं जिससे कि वह अपना चतुर्मुखी विकास कर सके और सामाजिक व्यवस्था को समुचित ढंग से संचालित कर सकें एवं अपने राष्ट्र के सभी व्यक्तियों के कल्याण में सहभागी हो सकें। २. जैन संस्कृति ने इन व्यावहारिक कर्तव्यों की संहिता को शास्त्रीय दृष्टि से अणुव्रत या श्रावकाचार की संज्ञा प्रदान की है। इस संहिता के अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण ये पाँच आधारभूत एवं प्रमुख नियम है। इन प्रमुख नियमों का सम्यक् और संपूर्ण रूप से पालन करने के लिए इनके उपनियम भी बनाए हैं जिन्हें शास्त्रीय भाषा में व्रत की भावनाएँ कहीं है। इन प्रमुख नियमों में से पंचम एवं अंतिम नियम परिग्रह परिमाण हमारी चल एवं अचल और चेतन एवं अचेतन संपत्ति की सीमाओं को निर्धारित करने का निर्देश देता है। इस नियम का दूसरा नाम इच्छा परिमाण है। इच्छा परिमाण हमारी आंतरिक इच्छाओं को नियंत्रित एवं नियमित करने का निर्देश देता है। इस नियम का प्रमुख उद्देश्य यह है कि हम बाह्यरूप से अपनी चल एवं अचल संपत्ति विवेकपूर्वक निर्धारित सीमाओं में रखें और आंतरिक रूप से अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करें जिससे कि बाह्य सीमाओं का पालन स्वयमेव होता रहे। ३. प्रथम शताब्दि के विश्वविश्रुत आचार्य उमास्वामी ने मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र) के सप्तम अध्याय के निम्नांकित सत्रहवें सूत्र में परिग्रह की व्याख्या की है:३.१ मूर्छा परिग्रहः। मूर्छा को परिग्रह कहा गया है। चल-अचल संपत्ति के आधिपत्य, स्वामित्व एवं ममत्व की भावना परिग्रह है। अपनी आवश्यकताओं की सीमा तक चल-अचल संपत्ति रखना एवं सीमा से अधिक संपत्ति का परित्याग करना ही परिग्रह परिमाण व्रत है। ३.२ इस अध्याय के निम्नांकित उन्तीसवें सूत्र में परिग्रह परिमाण के अतिचारों का निषेधात्मक रूप से उल्लेख किया गया है :क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णथनधान्यदासीदास कुप्यप्रमाणातिक्रमाः।।७-२९।। इस सूत्र में परिग्रह परिमाण व्रत के अतिचारों का उल्लेख किया गया है। इस सूत्र का
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy