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________________ जैन चर्या में अहिंसकाहार सतेन्द्रकुमार जैन प्राचीन काल से ऋषि मुनियों के आहार के विषय में जहाँ स्वयं को संयमित रखकर आहार ग्रहण करने को बल दिया है, वहीं समूचे प्राणियों को आहार के विषय में ज्ञान करा कर जीव जाति पर उपकार किया है। जैन मुनियों की आहार चर्या तो विश्व के समूचे संतों की आहार में श्रेष्ठ आहार चर्या कही जाती है। जैन संतों ने भोजन की शुद्धता के लिए श्रावकों को यथोचित निर्देश दिये हैं। श्रावक इस प्रकार के आहार का उपयोग करें जिससे स्वास्थ्य व धर्म दोनों सुरक्षित रहें। वैसे तो जैन आहार संहिता में भक्ष्याभक्ष्य का विवेक तो रखा गया है परन्तु आहार शुद्धि में वस्तु भक्ष्य होने के बाद भी किस प्रकार के उपयोग में लेना चाहिए, इसका भी विचार किया गया है। आचार्य उमास्वामी जी ने अहिंसा व्रत की भावनाओं का वर्णन करते हुए कहा है कि ऐसा भोजन शुद्ध है जो भक्ष्य सूर्यप्रकाश में बनाया गया हो तथा सूर्य प्रकाश में यही ग्रहण किया गया हो। इसे आलोकित पान भोजन के नाम से ग्रहण किया गया है। इसके अतिरिक्त ऐसे आहार को ग्रहण करने के लिए भी मना किया है जो अधिक हिंसा करके अथवा चोरी करके लाया गया हो क्योंकि ऐसा आहार मन को विकृत करता है तथा मन में चोरी आदि पाप करने के भाव उत्पन्न करता है इसलिए कहा गया है कि जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन जैसा पीवे पानी वैसी होवे वाणी । आहार का स्वरूप : प्रत्येक प्राणी के जीवन में चार संज्ञाएँ पाई जाती हैं। जिसमें से आहार संज्ञा जीवन जीने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बिना आहार के जीवन की सभी क्रियाएं निरर्थक हो जाती हैं। आहार प्राणी के शरीर में स्फूर्ति, बलिष्ठा तथा शारीरिक क्षमता को बनाये रखता है। आहार शब्द की निष्पत्ति आङ् उपसर्ग हृ धातु से घञ् प्रत्यय लगने से हुई है, जिसका अर्थ लाना या भोजन करना है। आहार से विचारों में परिपक्वता आती है। श्रेष्ठ आहार श्रेष्ठ विचारों को जन्म देता है। आहार शुद्धौ सत्त्व शुद्धौ यह सूत्र इस बात को उद्घोषित करता है कि भोजन की शुद्धि से जीव की शुद्धि होती है। गाली और गीत का सम्बन्ध भोजन से ही है। भोजन से ही भजन और भंजन की भूमिका तैयार होती है। इसलिए हमें अपने भोजन के लिए सिर्फ पेट भरने वाला भोजन नहीं मानना चाहिए। खानपान का सीधा सम्बन्ध शरीर से होता है, शरीर का संबन्ध मन और स्वास्थ्य से होता है। मन का संबन्ध विचारों और भावों से होता है और भावों का संबन्ध पुण्य-पाप, स्वर्ग-नरक, न्याय-अन्याय, सुख-दुःख, शांति - अशांति और संसार-मोक्ष से होता है। इसलिए प्राणियों को ऐसा आहार ग्रहण करना चाहिए जो मन को आनन्दित करें,
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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