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________________ 56 अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 ‘ग्यारह’ हैं- पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, काल, आत्मा, मन, दिक्, तम व शब्द | 'गुण'गुण द्रव्य से भिन्न व अभिन्न हैं उनकी संख्या 'तेरह' है - रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रव्यत्व तथा स्नेह । प्रभाकरमिश्र या गुरुमत की अपेक्षा पदार्थ आठ हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय, संख्या, शक्ति एवं सादृश्य । द्रव्य नौ हैं- पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, काल, आत्मा, मन व दिक्। गुण इक्कीस हैं- रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, परिमाण, संयोग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रव्यत्व, स्नेह, संस्कार, शब्द, धर्म, अधर्म तथा वेग । मुरारि मिश्र या ‘मिश्रमत' की अपेक्षा परमार्थतः ब्रह्म ही एक पदार्थ है । व्यवहार से पदार्थ चार हैं- धर्मी, धर्म, आधार व प्रदेश विशेष । मीमांसा और जैन की तुलना मीमांसा वेद को अपौरुषेय व स्वतः प्रमाण वेदविहित हिंसा यज्ञादिक को धर्म, जन्म से ही वर्णव्यवस्था तथा ब्राह्मण को सर्वपूज्य मानते हैं। जैन उक्त सर्व बातों का खण्डन करते हैं। उनकी दृष्टि मं प्रथमानुयोग आदि चार अनुयोग ही चार वेद हैं। अहिंसात्मक हवन व अग्निहोत्रादिरूप पूजा-विधान ही सच्चे यज्ञ हैं। वर्ण-व्यवस्था जन्म से नहीं, गुण व कर्म से होती है, उत्तम श्रावक ही यथार्थ ब्राह्मण है । इस प्रकार यह दोनों दर्शनों में भेद है। जैनदर्शन में द्रव्य का लक्षण 'सत्' कहा गया है और उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य- इन तीनों से युक्त अर्थात् इन तीनों रूप है, वह सत है “सत् द्रव्यलक्षणम्”३, “उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्" ४ यद्यपि द्रव्य का लक्षण सत् है, लेकिन गुण और पर्यायों के समूह को भी द्रव्य कहते हैं। जैसे जीव एक द्रव्य है, उसमें सुख ज्ञान आदि गुण पाये जाते हैं और नर-नारी आदि पर्यायें पाई जाती हैं, किन्तु द्रव्य से गुण और पर्याय की सत्ता अलग नहीं है कि गुण भिन्न है, पर्याय भिन्न हैं और उनके मेल से द्रव्य बना है । अनादिकाल से 'गुणपर्यायात्मक' ही द्रव्य है । गुण नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य होती हैं। अतः द्रव्य को नित्य - अनित्य कहा जाता है । जैनदर्शन में सत् का लक्षण उत्पाद व्यय और ध्रौव्य माना गया है। मीमांसादर्शन के पारगामी महामति कुमारिल भट्ट भी पदार्थो को उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, अवयव - अवयवी में भेदाभेद, वस्तु को स्व की अपेक्षा सत् और पर की अपेक्षा असत् तथा सामान्य- विशेष को 'सापेक्ष' मानते हैं। द्वितीय शताब्दी के प्रभावशाली जैन आचार्य समन्तभद्र ने द्रव्य की त्रयात्मकता के विषय में दो दृष्टान्त दिये हैं। उन्हीं दृष्टान्तों का समर्थन आचार्य कुमारिल ने भी किया है। आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं “घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ एक किसान के एक पुत्र है और एक पुत्री । किसान के पास एक सोने का घड़ा है। पुत्री उस घड़े को चाहती है। पुत्र उस घड़े को तोड़कर मुकुट बनवाना चाहता है । किसान पुत्र की हठ पूरी करने के लिए घड़े को तुड़वाकर उसका मुकुट बनवा देता है । घड़े के नाश से पुत्री दुःखी होती है, मुकुट के उत्पाद से पुत्र प्रसन्न होता है और किसान जो कि सोने का
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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