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________________ 15 अनेकान्त 65/4, अक्टूबर-दिसम्बर 2012 जैनाचार में शिकार की बहुशः निन्दा की गई है। इसे निष्प्रयोजन पाप कहा गया है। लाटीसंहिताकार का कहना है कि शिकार खेलने में अनेक प्राणियों की हिंसा करने के परिणाम होते हैं, भले शिकार में सफलता मिले या न मिले। अतः शिकार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। ६. चोरी - वेदों में चोरी की पर्याप्त निन्दा की गई है।७२ ऋग्वेद की तैत्तिरीय संहिता में तीन प्रकार के चारों का वर्णन है - स्तेन - गुप्त रूप से चोरी करने वाले। तस्कर - प्रकट रूप से चोरी करने वाले। मनिम्लु - अत्यन्त प्रकट रूप से डाका डालने वाले। यजुर्वेद में भी इनका वर्णन हुआ है। चोरी को बुरे आचार में गिनकर इसकी निन्दा की गई है। जैनाचार में तो चोरी को दुर्व्यसन के साथ पाँच पापों में भी एक माना गया है तथा चोरी की जमकर निन्दा की गई है। ७. परस्त्रीसेवन - वेद में परस्त्री सेवन एवं व्यभिचारिणी स्त्रियों की पर्याप्त निन्दा की गई है। इसका स्पष्टीकरण वेश्यागमन व्यसन के संदर्भ में किया जा चुका है। कुरलकाव्य में परस्त्रीसेवन का निषेध करते हुए कहा गया है कि - 'वरमन्यत्कृतं पापमपराधोऽपि वा वरम्। रं न साध्वी त्वत्पक्षे कांक्षिता प्रतिवेशिनी।।७४ अर्थात् तुम भले ही कोई भी पाप या कोई भी अपराध करलो, वह अच्छा हो सकता है, परन्तु तुम्हारे पक्ष में पड़ौसी पतिव्रता स्त्री की चाह अच्छी नहीं है। उपर्युक्त सात व्यसनों का वर्णन जैनाचार में श्रावक के लिए अनिवार्य माना ही गया है, प्रकारान्तर से वैदिक साहित्य में भी पाया जाता है। ऋग्वेद में कहा गया है कि ऋषियों ने जिन सात मर्यादाओं का वर्णन किया है, उनमें एक को भी प्राप्त होने वाला मानव पापी होता है।५ आचार्य यास्क ने इनका उल्लेख इस प्रकार किया है 'स्तेयं तल्लपारोहणं ब्रह्महत्या भ्रूणहत्या सुरापानम्। दुष्कृतस्य कर्मणः पुनः पुनः सेवा पातकेऽनृतोद्यमिति।।७६ चोरी, व्यभिचार, ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म का पुनः पुनः सेवन तथा पाप कर्मों में झूठ बोलना ये सात बुरी आदतें (मर्यादायें) हैं। (ग) दान - भारतीय संस्कृति में दान देना मानव का आवश्यक कृत्य माना गया है। वेदों में दान की खूब प्रशंसा की गई है। कतिपय संदर्भ द्रष्टव्य है - 'स इद् भोजो यो गृहवे ददात्यन्नकामाय चरते कृशाय।७७ (जो अन्न चाहने वाले कमजोर व्यक्ति को अन्न देता है, वह दानी है।) उदार दाता कभी भी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है, दीन-हीन दशा को प्राप्त नहीं होता तथा हानि एवं पीडा को प्राप्त नहीं होता है। तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः।७९ (त्याग पूर्वक उपभोग करो, लालच मत करो।) शतहस्तं समाहर, सहस्रहस्तं संकिर। (तुम सौ हाथों वाले होकर धन प्राप्त करो तथा हजार हाथों वाले होकर दान दो।)
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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