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________________ 14 अनेकान्त 65/4 अक्टूबर-दिसम्बर 2012 २. मांस - यजुर्वेद में विध्यात्मक अहिंसा के साथ निषेधात्मक हिंसा के विवेचन से मांसभक्षण को दुर्व्यसन के रूप में मानने का सुस्पष्ट संकेत मिलता है अश्वं मा हिंसीः । ९ अविं मा हिंसीः । ६१ घृतं दुहानामदितिं मा हिंसीः । ६३ इन कथनों में अश्व, एक खुर वाले पशु, बकरी, भेड़ एवं गाय को मारने के निषेध के कथन स्पष्ट करते हैं कि वेदों में मांस भक्षण को बुरा एवं त्याज्य माना गया है। जैन श्रावकाचार के प्रमुख ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है कि प्राणियों के घात के बिना मांस की उत्पत्ति नहीं हो सकती है, इसलिए मांसभक्षी को अनिवार्य हिंसा होती है। स्वयं मरे हुए भैंस, बैल आदि जीवों के भक्षण में भी हिंसा है, क्योंकि उनके आश्रित रहने वाले अनन्त निगोदिया (क्षुद्र) जीवों की हिंसा वहां पाई जाती है। कच्ची, अग्नि में पकी या पक रहीं सभी प्रकार की मांसपेशियों में उसी जाति के अनन्त निगोदिया जीव प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं, इसलिए उनको खाने वाला उन करोड़ों जीवों का घात करता है । १४ ३. सुरापान - ऋग्वेद में सुरा पीने वालों की निंदा करते हुए कहा गया है - "हृत्सु पीतासो युध्यन्ते दुर्मदासो न सुरायाम् । ऊधर्न नग्ना जरन्ते । ६५ अर्थात् सुरा का पान करने वाले मदमस्त होकर लड़ते हैं और नंगे होकर बकते हैं । पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है कि मदिरा मन को मोहित करती है । मोहितचित्त व्यक्ति धर्म को भूल जाता है तथा विस्मृतधर्मी व्यक्ति हिंसा का आचरण करता है । मदिरा एकेन्द्रिय आदि जीवों की योनिभूत है। मद्यपायी हिंसा अवश्य करता है। हिंसा के सभी प्रकार मद्य के निकटवर्ती ही हैं । ६६ मा हिंसीरेकशफं पशुम् । १° इदमुर्णायुं मा हिंसीः । १२ ४. वेश्यागमन - वेदों में वेश्यागमन एवं परस्त्रीसेवन को पृथक्-पृथक् न गिनकर एक व्यभिचार में ही समावेश किया गया है तथा इस प्रंसग में सेविका का स्वामी से जार कर्म का वर्णन किया गया है। वहां कहा गया है कि व्यभिचारिणी सेविका जारकर्म तो करती है किन्तु उससे वंशवृद्धि नहीं चाहती है । ७ वसुनन्दिकृत श्रावकाचार में वेश्यागमन करने वाले की निंदा करते हुए कहा गया है कि जो मनुष्य एक रात भी वेश्यागमन करता है, वह सबकी जूठन खाता है, क्योंकि वह सबके साथ समागम करती है । वेश्या पुरुष का सर्वस्व हर लेती है और उसे अस्थिचर्मशेष करके छोड़ देती है। वह सामने तो प्रेम प्रदर्शित करती है, खुशामदी करती है किन्तु अन्ततः उसका धनापहरण का भाव रहता है । वेश्यागामी कामान्ध होकर वेश्याकृत अपमानों को सहन करता है। वेश्यासेवन से उत्पन्न पाप से जीव भयानक दुःखों को प्राप्त करता है। इसलिए मन, वचन, काय से वेश्या का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए । ६८ ५. शिकार - सभी सभ्य समाजों में आचार की प्रशंसा एवं अनाचार की निन्दा की जाती है। यद्यपि वेदों में शिकार की प्रशंसा या निन्दा के प्रसंग नहीं है किन्तु परवर्ती साहित्य में शिकार की प्रशंसा भी की गई है और निन्दा भी । अभिज्ञानशाकुन्तलम् में कालिदास एक ओर सेनापति के मुख से शिकार खेलने के गुण गिनाते हैं तो दूसरी ओर नर्मसचिव विदूषक के मुख से शिकारा की निंदा भी करते हैं ।" शिकार के गुण गिनाना यदि पूर्व पक्ष है तो शिकार की निंदा उत्तरपक्ष।
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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