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________________ वैदिक संस्कृति और जैन संस्कृति - डॉ. जयकुमार जैन संस्कृति शब्द सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। अतः संस्कृति शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- सम्यक् प्रकार से किया गया कार्य। संस्कृति शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग यजुर्वेद में दृष्टिगत होता है ___ 'आच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम। सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा। अर्थात् सोम के सवन, पान और प्रदान की प्रक्रिया से विश्व का स्वरूप स्थिर होता है। यह प्रथम संस्कृति है। तत्पश्चात् ब्राह्मण ग्रन्थों में संस्कृति का प्रयोग हुआ है। शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ के विशिष्ट आचार को संस्कृति कहा गया है तो ऐतरेय ब्राह्मण में आत्मसंस्कृतिवि शिल्पानि'३ कहकर शिल्प सभ्यता या व्यवहार को संस्कृति कहा है। उपर्युक्त से फलित होता है कि मानव के आचार, विचार और व्यवहार का नाम संस्कृति है। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान् प्रो. सत्य प्रकाश शर्मा का कहना है- 'मानव अपने लौकिक या पारलौकिक सर्वविध कल्याण के लिए जिन आचारों एवं विचारों का आश्रय लेता है, वे ही संस्कृति हैं। जन जीवन पर जिसका सबसे अधिक गहरा प्रभाव पड़ता है, वह तत्त्व धर्म है। धर्म के द्वारा व्यष्टि तथा समष्टि के आचार, विचार और व्यवहार की निर्मिति होती है। जीवन के समूचे चक्र को धर्म प्रभावित करता है। अतः वैदिक धर्म से प्रभावित आचार, विचार एवं व्यवहार को वैदिक संस्कृति तथा जैन धर्म से प्रभावित आचार, विचार एवं व्यवहार को जैन संस्कृति नाम दिया गया है। धर्म में जहाँ कट्टरता की संभावना विद्यमान रहती है, वहाँ संस्कृति में लचीलापन पाया जाता है। किसी भी धर्म का कट्टर अनुयायी एक ऐसा अफीमची हो जाता है, जिसे अपनी धार्मिक रूढ़ियों का गहरा नशा होता है तथा वह सत्य को नहीं समझ पाता है। इसकी झलक पाणिनिकृत अष्टाध्यायी के 'येषां च विरोधः शाश्वतिकः५ सूत्र के उदाहरणों में काकोलूकम्, श्वश्रृगालम् के साथ श्रमणब्राह्मणम् में देखी जा सकती है। संस्कृति ऐसे अवसर पर अन्य धर्मावलम्बी के प्रति सहिष्णुता एवं आचारण की उदारता की राह बताती है। जब-जब यह सहिष्णुता एवं उदारता समाप्त हो जाती है तब-तब दो समुदायों में टकराहट होने लगती है। विचारकों/संस्कृतिज्ञाताओं का कर्तव्य है कि वे डूबने वाले जहाज के छेदों को बन्द करने की राह बतायें, उन छेदों को संस्कृति मानकर बड़ा न होने दें। भगवान् महावीर, महात्मा बुद्ध, नानक, कबीर, दादू या अन्य मानवतावादी महापुरुषों एवं सन्तों ने सच्ची राह दिखाई है, आज भी उसी की आवश्यकता है। वैदिक और जैन दोनों संस्कृतियाँ अत्यन्त प्राचीन हैं, उन्हें काल की इयत्ता में बांधना संभव नही है। पाणिनीकृत अष्टाध्यायी के 'येषां च विरोधः शाश्वतिकः' सूत्र में
SR No.538065
Book TitleAnekant 2012 Book 65 Ank 02 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2012
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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